डा.नीलम

कुछ पल यूं ही......


आज फिर एक रात मायूसी में गुज़र गई
मचली-कुचली चादर की सिलवटें रह गईं


ख्वाब आधे-अधूरे बिखरे-बिखरे तारों से रहे
नींद जुल्फों से उलझती रही
पलकों में उतरी नहीं


इक गुबार ग़म का दिल का फेरा लगाता रहा
बिन बरसे बादल की तरहा तन्हा भटकता रहा


मुस्कान पता लबों का भूल गई
काजल आँखों के लिए तरसता रहा।


      डा.नीलम


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