सुनीता असीम तेरे मेरे प्यार का कैसा फ़साना हो गया।

सुनीता असीम


तेरे मेरे प्यार का कैसा फ़साना हो गया।
रोज मिलने के लिए जाना बहाना हो गया।
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कह रहा है आदमी खुद को मगर बनता नहीं।
कर जमाने की बुराई समझा सयाना हो गया।
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वक्त कैसा आ गया मां-बाप की इज्जत नहीं।
रोज उनको बस रुला नजरें चुराना हो गया।
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वो कभी रोता कभी हसता दिखाने के लिए।
किस तरह का आज ये तो मुस्कराना हो गया।
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इस तरह का प्यार करते लोग सारे आजकल।
वस्ल की इच्छा जताना दिल लगाना हो गया।
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सुनीता असीम
३/२/२०२०


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