कविता-
' मेँ स्त्री हूँ '
मेँ स्त्री हूँ
नदी की तरह बहती हूँ
मुझे सागर नहीं बनना।
मेँ महीन रेत की कण
जो करती नीड़ का निर्माण
मुझे चट्टान नहीं बनना।
मेँ हरी-भरी सुन्दर धरती
जो पालती पूरा विश्व
मुझे शून्य आसमान नहीं बनना।
मेँ हूँ सीता ,द्रोपदी अहिल्या
जिनका किया तिरस्कार
ऐसे राम ,पांडव गौतम
मुझे नहीं बनना।
मेँ वात्सल्य की कलश माँ हूँ,
छलकाती हूँ स्नेह अमृत
मुझे पर्वत सा कठोर
पिता नहीं बनना।
मेँ स्त्री हूँ
मेँ स्त्री ही रहना चाहती हूँ
मुझे पुरुष नहीं बनना।
डॉ.शैल चन्द्रा
रावण भाठा, नगरी
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