सत्यप्रकाश पाण्डेय

हो मेरे जीवन सुमन तुम,
क्यों मुरझाये से लगते हो।
छोड़ के अपना सौंदर्य,
क्यों अलसाये से रहते हो।।


तेरी सुरभि से सुरभित,
मैं महक खुशी की फैलाता।
जब तुम ही बिखर गए तो,
कैसे गीत खुशी के गाता।।


तेरी कलियां खिलती थीं,
देख मेरा आनन मुस्काता।
जीवन ज्योति प्रखरता से,
मकरन्द हृदय पर छा जाता।।


ललचायी तितली सा मन,
यौवन पराग तेरा पाने को।
मदहोश किये मांसल तन,
व्याकुल रहता तुझे पाने को।।


कोई कुदृष्टि का झौंका,
कैसे बदन जला गया तेरा।
तू सृजा था सत्य चमन को,
चुरा लेगया को आश्रय मेरा।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय


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