श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार

वक्त ला रहा हे हमे, पुरातन की ओर।
जाग मुसाफिर क्या चाहता हे, तेरे यहां का छोर।
देख गगन को अकुलाता है, बार बार की गोली से।
और धरा भी धरासाई होती, यू ही खोद मोली से।
आज प्रकृति भी रूठी है, नर बोलती है बोल।
पर तू नही इनकी सुनता खुब मचाए शोर।
आज विधाता भी चाहता है, कर ले भजन जिंदगानी मे।
हर तरफ से तुझको जकडा, लेकर एक कहानी मे।
अब तो समझ ले, अब तो कर ले, थोडा सा है मोल।
और यहा जीवन जी जा खूद पर कर कंट्रोल।
बार बार आगाज है करते, हर समय सब कुछ बतलाते।
भागवत, गीता कह चुकी है, कुछ नही यू क्यो तुम रहते।
अब तो कर लो ,अपने आप का, और करो उद्धार।
वरना भूल जाओ तुम जाना है उस पार ।
आज अंह और धन मे रहते, करते फिजुल खर्ची।
देखा वो कैसा है बैठा, तिकडम बाज दर्जी।
उसके हाथो बच ना सकेगा, मनमानी जो तू करेगा।
आ आजा प्रभू शरण मे, यही बात  का सार।
बाकि सब बेकार है, माया जाल अपार।
श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार


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