सोनी कुमारी पान्डेय

जय सरस्वती माँ 


 कोई दीवाना आँखों में         
        सपना बनकर छा जाता हो,
ख्वाबो ख्यालो की राहों से 
       हृदय में कोई समाता हो।


जब चंचल से खाली मनमें
        एक तस्वीर छप जाती हो 
जब मासूम निगाहें आकर
        बेसुध उन पर रुक जाती हो, 


जब सूरज की धानी चुनरी
         क्षिति पर लहराने लगती हो 
जब शर्म हया वाली लाली 
           मुख पर गहराने लगती हो 


जब रात का चांद धरती पर 
        स्वच्छ चाँदनी छलकाता हो, 
 अंबर भी पगली रजनी को 
            चांद तारो से सजाता हो 


जब उनसे मिलने जुलने का
         कभी मौसम ही न आता हो
कुछ कहने समझाने में भी 
           ये चंचल मन घबराता हो 


जब अनुभूतियों का तेज स्वर 
          मौन स्तब्ध खोने लगता हो
उदास रात की तनहाई मे
          अंतरमन रोने लगता हो 


तब अपने इस पागल दिल को 
        क्या कहकर समझाया जाए
प्रेम वियोग मे राधिका सा 
            धैर्य कहाँ से लाया जाए।



   सोनीकुमारी पान्डेय


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