डॉ हरि नाथ मिश्र

*गीत*(छप्पन भोग16/14)


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।


किसको फ़िक्र पड़ी है उसकी-


मृतक जगत यह लगता है।।


 


जहाँ देखिए कहर-कहर ही,


नहीं अमन औ'चैन दिखे।


परेशान मजलूम यहाँ पर,


कुत्ता ओदन भले चखे।


मानवता तो दूर बसी जा-


क्रूर भाव मन बसता है।।छप्पन भोग......।।


 


मंदिर-मस्ज़िद-गिरजाघर में,


दान-पुण्य यदि है होता।


इसमें तो आश्चर्य नहीं है,


कर्म-कुकर्म वहाँ होता।


दान-धर्म के नाम ठगी कर-


पापी जीवन पलता है।।छप्पन भोग.......।।


 


चंदन-तिलक लगा माथे पर,


पंडित लगे पुजारी है।


धर्म-कर्म का करते धंधा,


ठगता बारी-बारी है।


बेच-बेच कर मानवता को-


कहता दुख वह हरता है।।छप्पन भोग........।।


 


अजब-गजब की दुनिया मित्रों,


इसकी चमक दिखावा है।


अंदर इसके भरी गंदगी,


सुबरन रूप छलावा है।


स्वर्ण कुंभ में भरा गरल जग-


मरता-जीता रहता है।।छप्पन भोग........।।


             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


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