ग़ज़ल---
चले हैं सारे परिंदे भी अब घरों की तरफ़
निगाहें मेरी भी उठ्ठीं कई दरों की तरफ़
तमाम रात भटकता फिरा हूँ सड़कों पर
यहाँ है कौन जो देखे मुसाफ़िरो की तरफ़
छुयेगा कैसे बुलंदी वो आसमानों की
जो देखता हो हमेशा से ही परों की तरफ़
लो इतनी हो गई रफ़्तार तेज़ मेरी भी
उड़ाई धूल है मैंने भी कुछ सरों की तरफ़
बला की प्यास है अब तक कहीं न बुझ पाई
गया था शौक से मैं भी समुंदरों की तरफ़
मैं अपनी जंग भी लड़ता कहाँ कहाँ तन्हा
खड़े थे सारे ही अपने सितमगरों की तरफ़
बना के बुत उसे पूजा है मुद्दतों हमने
निगाहे-यार न उठ्ठी पुजारियों की तरफ़
गुलों की आरज़ू साग़र भी कैसे हम कर लें
उठाये जाते हैं पत्थर ही सरफिरों की तरफ़
🖋️विनय साग़र जायसवाल
12/10/2017
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