तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-7
लछिमन लखि रामहिं इक बारा।
बैठे प्रमुदित मुक्त बिचारा।।
कहे बिनीत सुनहु जग-स्वामी।
छमहु मोंहि जदि हो मनमानी।।
मोंहि बतावउ ग्यान-बिरागा।
मया-मोह,आसक्तिहिं-रागा।।
ताहि समुझि मैं सेवा करऊँ।
बनि तव चरन-दास मैं रहऊँ।।
थोरे मा प्रभु लखन तें कहहीं।
'तोर-मोर' बस माया अहहीं।।
माया बसहि सभें जग-जीवहिं।
इंद्री-सुख-रस मन जे पीवहिं।।
एक रूप जग जानै बिद्या।
दूजा जगत कहाय अबिद्या।।
बिद्या प्रभु-प्रेरित जग रहही।
ब्रह्म-ग्यान अतिसय सुख लहही।।
दुष्ट अबिद्या बहु जग-घातक।
पाइ ताहि जीव होय पातक।।
ग्यानइ रहहि जगत बिनु माना।
ब्रह्म-रूप सभ महँ पहिचाना।।
रिद्धि-सिद्धि-नवनिधि नहिं भावै।
बैरागी जग उहहि कहावै ।।
निजइ स्वरूप जीव नहिं जानै।
नहिं माया ईस्वर पहिचानै।।
धर्महिं बिरति मिलै संसारा।
जोगहिं ग्यान मिलै जग सारा।।
सुनु मम भ्रात भगति जड़ सुख को।
बिनु सत्संगहिं मिलै न कहु को ।।
मारग भगति बहुत अनुकूला।
मिलहिं प्रभू बरु जग प्रतिकूला।।
उपजै नर महँ बिषय-बिरागा।
प्रानी-प्रभु बिच तब अनुरागा।।
प्रभु प्रति प्रेम भगति नव रूपा।
लीला प्रभु कै रुचिर अनूपा।।
लहहि जगत सभ संत-प्रेम तें।
मन-क्रम-बचन-भजन-नेम तें।।
जे प्रभु-गुन गावै सुति-उठि नित।
अश्रु नयन भरि तन-मन पुलकित।।
तासु हृदय प्रभु बसहिं निरंतर।
डसै न तेहिं भव-नाग भयंकर।।
काम-क्रोध-मद-लोभ न जाको।
सरल-सुलभ सनेह प्रभु ताको।।
मन-क्रम-बचन भजन जे करहीं।
प्रभु-पद-पंकज-प्रेमहिं लहहीं।।
दोहा-गूढ़ ग्यान-गुन सुनि लखन,प्रभु निज मुखहिं बखान।
नवा सीष छुइ प्रभु-चरन, भे रत जग-कल्यान ।।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
9919446372
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