डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गुरु-गरिमा है सिंधु सम,गुरु विराट आकाश।


गुरु-प्रसाद है दिव्यतम,पा हो ज्ञान-प्रकाश।।


 


गुरु समान हैं मातु-पितु,प्रथम बोल के स्रोत।


मातु-पिता-गुरु चंद्र सम,अन्य लोग खद्योत।।


 


सकल ज्ञान-विज्ञान का,होता गुरु से बोध।


करे सीख गुरु से मिली,जीवन में नव शोध।।


 


ऋषि-मुनि,संत-असंत सब,कर निज गुरु-सम्मान।


कुशल-निपुण होकर सदा,पाए जग-पहचान।।


 


ब्रह्मा-विष्णु-महेश ही,गुरु-गरिमा को जान।


गुरु ही तो जग ब्रह्म है,रखो सदा गुरु-मान।।


 


लख विकास निज शिष्य का,प्रमुदित बस गुरु होय।


बंधु-बांधव-अन्य जन,जलते आपा खोय ।।


 


लेकर गुरु-आशीष ही,होते लोग महान।


गुरु के बिना न ज्ञान-सर,होता कभी नहान।।


           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


               9919446372


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