डॉ0 हरि नाथ मिश्र

अष्टावक्र गीता-13


महासिंधु सम मैं वृहद,यह जग उर्मि समान।


त्याग-ग्रहण बिन मैं रहूँ,एकरूप सँग ज्ञान।।


 


चाँदी रहती सीप में,ज्यों मुझमें संसार।


रहूँ ज्ञान सँग मान मैं, त्याग-ग्रहण बिन सार।।


 


सब प्राणी मुझमें रहें,सब में मेरा वास।


त्याग-ग्रहण बिन मैं रहूँ,कर यह ज्ञानाभास।।


              © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


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