डॉ0 हरि नाथ मिश्र

जैसी करनी वैसी भरनी


 


जैसी करनी वैसी भरनी,अब तू क्यों पछताए रे,


पागल बन के गली -गली में,खुद को क्यों हँसाये रे??


 


धन के मद में भूल गए तू,रिश्ते सारे अपनों के,


तू मूरख इंसान न जाने क्या दस्तूर फरिश्तों के?


अपने हाथों अपने ही घर में,काहें आग लगाए रे-


जैसी करनी वैसी भरनी.........।।


 


धरम-करम को ताख पे रख के,झूठे नाम कमाए तू,


बने रहे इंसान मगर शैतान को दिल में छुपाए तू।


काम बिगाड़ के जग में अपना,दर-दर ठोकर खाए रे-


जैसी करनी वैसी भरनी............।।


 


कल तक थी जो शोहरत तेरी,आज मिली वो पानी में,


नमो-निशाँ भी मिटा सब तेरा,अब क्या तेरी कहानी में।


बीज जो बोया नफ़रत का तो,प्यार कहाँ से पाए रे-


जैसी करनी वैसी भरनी...........।।


 


तुम्ही तो हो कारण ऐ मूरख, अपने सारे कष्टों के,


भगवान नहीं बच पाए यहाँ, तिकड़म से इन दुष्टों के।


अपने कर्मों से ही तुमने,अपीने चैन गवाएँ रे-


जैसी करनी वैसी भरनी,अब तू क्यों पछताए रे??


               © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


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