जीवन बीता जात निरंतर।
सुख-दु:ख़ का यह खेल स्वतंतर।।
यह अनुभव का गहन विषय है।
कभी हँसी या रुदन भयंकर।।
आता-जाता चलता रहता ।
बाहर कभी कभी अभ्यन्तर।।
कभी आत्म में कभी दंभ में।
जीवन डोलत रहत निरन्तर।।
गिरता कभी कभी उठता है।
चलता फिरता नीचे ऊपर।।
जीवन जटिल सरल भी है यह।
छिपा सोच में इसका अंतर।।
जीवन इक संग्राम भूमि है
कभी जलंधर कभी सिकंदर।।
जीवन की गहराई नापो।
यह छोटा नद और समंदर।।
मत जीवन को हल्के में लो।
यह विपदाओं का है मंजर।।
कभी उजासी कभी उदासी।
कभी प्रकाशित कभी अंधकर ।।
कभी शांत है कभी विवादित।
कभी अमी है कभी जहर- घर ।।
कभी संतमय जीवन दिखता।
दिखता कभी यही है विषधर।।
उथल-पुथल है भीड़भाड़ में।
जीवन है इक गरल युद्धघर।।
आपा-धापी मची हुई है।
जीवन का यह व्यथित शहर।।
डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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