सुनीता असीम

मनाने में सजन को तो जमाने बीत जाते हैं।


सुने जो वस्ल के सारे तराने बीत जाते हैं।


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नहीं फिर वार भी लगते निगाहे-यार के पूरे।


जवानी जब निकल जाती निशाने बीत जाते हैं।


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जरूरी है मुहब्बत का अदब भी जानना हमको।


विसाले यार तब होता रिसाले बीत जाते हैं।


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नहीं काफी उमर भी इक मुहब्बत को समझने में।


समझ में जब तलक आता ठिकाने बीत जाते हैं।


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मनाते हैं लुभाते हैं अदाओं से निगाहों से।


रिझाने में हसीना को दिवाने बीत जाते हैं।


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सुनीता असीम


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