बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा बिन्दु

जाने सकल जहान यह, सीता पति श्री राम


यही अयोध्या है नगर, यही पुन्य सुख धाम।


 


राम मर्यादा में रहे, रखे प्रजा की लाज


अपने संकट में रहे , छोड़ गये सिरताज।


 


मंथरा सोच कर चली , एक अनोखी चाल


फंस गयी थी कैकयी , बुन गई थी जाल।


 


दशरथ वचनों में घिरे, हुए हाल बेहाल


अलग हुए जब राम से, निकले प्राण निढ़ाल।


 


डूबे नगर वियोग में, हो गये शोकाकुल


रानी कैसी कैकयी , कर दी बात फिजूल।


 


भरद्वाज के कुटी गये, लक्ष्मण, सीता - राम


आशिष ले गुरु देव की, चरण वंदन प्रणाम।


 


सरयु नदी के तीर पर, नाविक था तैयार


चरण पखारन में लगे, अशुअन की थी धार।


 


वन वन भटके राम जी, सीता लक्ष्मण साथ


पंचवटी में जम गए, नाथों के वो नाथ।


 


जब भी रोते हैं धरम, तब अाते सरकार


नैया इस मझधार के, बन जाते पतवार।


 


भक्त और भगवान में, रहा अनूठा मेल


भगवन तारणहार हैं, उनका ही सब खेल।


 


अजामिल, गणिका तरे, तरे गिद्ध के राज


अहिल्या सेबरी भी तरी, अरु केवट स्वराज।


 


बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - (बिन्दु)


धनबाद - झारखंड


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