डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-11


बरषा-काल मदार न फूलै।


बिमल राज जस खल पथ भूलै।।


    सस्य-स्यामला महि उपकारी।


    जनु धन सुजन जगत-सुखकारी।


हलधर निपुन निरावहिं खेती।


जस बुध-जन परिहरहिं अनीती।।


     चक्रवाक नहिं बरषा-काला।


     कलिजुग महँ जस धरम अकाला।।


ऊसर भूमि हरित नहिं भवही।


प्रभु-जन जस न बासना बसही।।


     कबहुँ-कबहुँ नभ जलद-बिहीना।


     बहइ समीर जबर जेहि दीना।।


जस सद्धर्म हीन कुल होवै।


पा कुपुत्र धन-संपति खोवै।।


दोहा-कबहुँ त सूरज नहिं दिखे,तम महँ कबहुँ लखाय।


         मिलै ग्यान जस सुजन सँग,दुरजन मिलत बिलाय।।


       बरषा-ऋतु महँ पथिक जस,इत-उत कतहुँ न जाय।


       बिषयी मन भटके नहीं,ग्यान-जोति वस पाय ।।


                       डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


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