डॉ. हरि नाथ मिश्र

*चतुर्थ चरण*(श्रीरामचरितबखान)-13


सुनतै श्रुतन्ह लखन क्रोधातुर।


भवा तुरत सुग्रीव भयातुर।।


     कहा पवन-सुत तुम्ह लइ तारा।


     समुझावउ लखनहिं बहु बारा।।


लछिमन-चरन बंदि हनुमाना।


तारा सँग प्रभु-चरित बखाना।।


     होइ बिनम्र लखन गृह लाए।


    धोइ लखन-पद पलँग बिठाए।।


सीष नवा सुग्रिव पद गहही।


तुरत लखन तेहिं हृदय लगवही।।


     ऋषि नहिं जग मा कोऊ असही।


     जिनहिं बासना-नाग न डसही।।


सुनि सुग्रीव-बचन अस लछिमन।


बहु समुझाए कपिसहिं वहि छन।।


     बहु कपि अरु अंगद लइ साथहिं।


     गवा कपीस जहाँ रघुनाथहिं।।


प्रभु-पद सिर नवाइ कर जोरी।


छमहु नाथ कह ई त्रुटि मोरी।।


    मैं बानर मूरख बड़ कामी।


     हो रति-रत भूला निज स्वामी।।


नारी-नयन-बान सभ बेधहिं।


ऋषी-मुनी-जोगिन्ह-हिय सेंधहिं।।


     सभ जन क्रोध-फाँस महँ फँसहीं।


     माया-आहिनि सबहिं कहँ डसहीं।।


नहिं हो बिनू कृपा छुटकारा।


मैं बड़ अधम,करहु उपकारा।।


दोहा-सुनि अस बचन कपीस कै, राम कहे मुसकाइ।


         करहु जतन कछु कपि-पती,सिय-सनेस मिलि जाइ।।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अखिल विश्व काव्यरंगोली परिवार में आप का स्वागत है सीधे जुड़ने हेतु सम्पर्क करें 9919256950, 9450433511