*नास्तिकता*
*(चौपई ग़ज़ल)*
बहुत कुतर्की होते नास्तिक।
बनते सबसे बड़ा आस्तिक।।
सुंदरता भी गंदी लगती।
दोष दृष्टि में जीते नास्तिक।।
अनाचार ही सदाचार बन।
गढ़ता रहता विकृत नास्तिक।।
बनते सर्वोपरि ज्ञानी वे।
करते भद्दा नर्तन नास्तिक।।
अपनी बातों को मनवाने।
को व्याकुल होते हैं नास्तिक।।
शर्म हया को छोड़ हाँकते।
डींग सदा बेसहूर नास्तिक।।
नहीं किसी की चिंता करते।
हो निश्चिन्त भूँकते नास्तिक।।
सदा कुतर्क गढ़ा करते हैं ।
असहज अन्यमनस्क नास्तिक।।
इन्हें पुण्य में पाप दीखता।
बहुत झूठ में सच्चा नास्तिक।।
घोर विरोधी शिव मूल्यों के।
सत सुंदर नकारते नास्तिक।।
मन दूषित चेहरा काला है।
बनते सत शिव सुंदर नास्तिक।।
इनमें संवेदन का संकट।
बनत संवेदनशील नास्तिक।।
दुःखमय इनका सारा जीवन।
कैसे जीते हैं ये नास्तिक।।
जननी में भी कमी ढूढ़ते।
घोर पतित चंडाल नास्तिक।।
मार चुके ये परमेश्वर को।
स्वयं दरिंदा नीच नास्तिक।।
रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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