भावोद्गार(गीत)
सुनो, साजन चलो कहीं और,
छोड़ इस नगरी को।
यहाँ बसते हैं आदमखोर-
छोड़ इस नगरी को।
जिसको देखो रहे गड़ाए,
अपनी नज़रों को मुझ पे।
भूखी-गंदी उनकी नज़रें,
मारें झपट्टा भी मुझपे।
ये करते न इज़्जत पे गौर-
सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।।
धन के लोभी,पद के लोभी,
ये लोभी हैं दौलत के।
नारी की गरिमा से खेलें,
ये लोभी हैं शोहरत के।
नहीं इनका ठिकाना न ठौर-
सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।।
इनसे बचकर अब है रहना,
ये हैं भ्रष्ट विचारों के।
घुन हैं लगे सोच में इनकी,
ये भंडार विकारों के।
हो न रातों में इनकी भोर-
सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।
भोले तुम हो,मैं भी भोली,
यह नगरी मक्कारों की।
कपट-दंभ, छल-छद्म की नगरी,
यह नगरी नक्कालों की।
ये हैं नगरी-निवासी चोर-
सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।।
उड़ें पखेरू मस्त गगन में,
बहे पवन शीतल-शीतल।
प्रकृति पसारे बाँह खड़ी है,
लिए हृदय अपना निर्मल।
करे स्वागत वह भाव-विभोर-
सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को,
यहाँ बसते हैं आदमखोर-छोड़ इस नगरी को।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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