डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-10

पुनि उठि प्रात तुरत रघुराई।

सचिवहिं तें निज बाति बताई।।

    जामवंत तब कह नत माथा।

    सकल उपाय तु जानउ नाथा।।

बुद्धि-प्रताप तुमहिं आगारा।

कर उपाय निज मति अनुसारा।।

    भेजब हम अंगद कहँ तहवाँ।

     लंका नगर दनुज रह जहवाँ।।

तव बिचार आहै बड़ नीका।

अंगद-गमन अतीव सटीका।।

      बल-बुधि-तेजहिं नामी अंगद।

       जाहु तुरत तुम्ह रावन-संसद।।

जाइ तहाँ करु हितकर काजा।

बल-बुधि बूते करि कछु छा जा।।

    प्रभु-आग्या लइ छूई चरना।

    उठि अंगद कह नहिं कछु करना।।

करिहैं स्वयं राम रघुराई।

राम-कृपा मैं आदर पाई।।

    बंदि मनहिंमन प्रभु-प्रभुताई।

     बालि-तनय निकसा तहँ धाई।।

पहुँचि लंक रावन-सुत पाई।

खेल-खेल मा भई लराई।।

     अंगद लातन्ह-घूसन्ह पीटा।

      मारि-मारि तेहिं बहुत घसीटा।।

बध नरेस-सुत देखि निसाचर।

भागहिं इत-उत बिकल बराबर।।

      कहहिं सुनो पुनि आवा बानर।

       गवा रहा जे लंक जराकर ।।

डरि-डरि तब सभ दिए बताई।

जहँ रह रावन-सभा सुहाई।।

सोरठा-सभा मध्य लंकेस, अंगद सुमिरत प्रभु-चरन।

            कीन्हा तुरत प्रबेस, केहरि इव चितवत सबहिं।।

                           डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                             9919446372

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अखिल विश्व काव्यरंगोली परिवार में आप का स्वागत है सीधे जुड़ने हेतु सम्पर्क करें 9919256950, 9450433511