डॉ0हरि नाथ मिश्र

*शीत-ऋतु*(दोहे) जाड़े की ऋतु आ गई,जलने लगे अलाव। ओढ़े अपना ओढ़ना,करते सभी बचाव।। होती है यह शीत-ऋतु,अनुपम और अनूप। इसकी महिमा क्या कहें,रुचिर लगे रवि-धूप।। परम सुहाने सब लगें,खेत फसल-भरपूर। चना संग गेहूँ-मटर, शोभित महि का नूर।। शीत-लहर आते लगें,यद्यपि लोग उदास। फिर भी रहते हैं मुदित,ले वसंत की आस।। गर्मी-पावस-शीत-ऋतु,हैं जीवन-आधार। विगत शीत-ऋतु पुनि जगत,आए मस्त बहार।। ©डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

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