डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-8

लखहु बिभीषन दिसि दक्खिन महँ।

गरजहिं बादर रहि-रहि नभ महँ।।

    रहि-रहि बिजुरी चमकि रही जनु।

     ओल-बृष्टि करिहैं जग अब घनु।।

तब प्रभु सन अस कहहिं बिभीषन।

ना तड़ित,न बादर नाथ गगन।।

     अद्भुत लंक-सिखर रँगसाला।

     नृत्य-गान तहँ होंय निराला।।

घन इव कारा अरु बिकराला।

धरि सिर छत्र लखै नटसाला।।

     रावन जाइ तहाँ रस भोगै।

     बिषय-भोगरत निज रुचि जोगै।।

चमक गगन नहिं दामिनि होवै।

कुंडल कर्ण मँदोदरि सोहै।।

     गरजन घन-घमंड नहिं होई।

     थाप मृदंग-पखावज सोई।

तुरत राम धनु-सायक काटा।

कुंडल-छत्र तिनहिं जे ठाटा।।

    कउ लखि सका न रामहिं काजा।

     जदपि रहे सभ उहहिं बिराजा।।

पुनि प्रबिसा सर आइ निषंगा।

अचरज करि रँग डारि क भंगा।।

     बिनु भूकंप न बायु सँजोगा।

     लखा न कोऊ सस्त्र-प्रयोगा।

अस कस भयो अचंभित सबहीं।

सोचे सभ जनु असगुन भवहीं।

दोहा-देखि सबहिं भयभीत तहँ,बिहँसि कहा लंकेस।

         सीष-मुकुट कै अस पतन,जानहु सुभ संदेस।।

         जावहु सभ निज-निज गृहहिं,करहु सयन-बिश्राम।

        होहि मोहिं सुभ अस पतन,असगुन मुकुट न काम।।

                           डॉ0हरि नाथ मिश्र

                             9919446372

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अखिल विश्व काव्यरंगोली परिवार में आप का स्वागत है सीधे जुड़ने हेतु सम्पर्क करें 9919256950, 9450433511