विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल--


बाक़ी हुरूफ़ जो ये मेरी दास्तां के हैं

अहसान यह भी मुझ पे किसी मेहरबां के हैं


रह रह के बिजलियों को है इनकी ही जुस्तजू 

तिनके बहुत हसीन मेरे आशियां के हैं 


भूले हुए हैं लोग गुलामी की बेड़ियाँ 

गुमनाम आज नाम कई पासबां के हैं


इन रहबरों ने आज वफ़ा की किताब से 

नोचे वही वरक़  जो मेरी दास्तां के हैं 


हँसते हुए ही दारो-रसन पर चढ़ेंगे हम 

फ़रज़न्द हम भी दोस्तो हिन्दोस्तां के हैं 


इन तेज़ आँधियों का चराग़ों न ग़म करो 

फानूस बन के लोग खड़े आशियां के हैं 


फिर मकड़ियों ने जाल बुने हैं जगह जगह

गर्दिश में फिर नसीब क्या अपने मकां के हैं


रौशन चराग़ कर के रहेंगे ए-सुन हवा 

पाबंद हम तो आज भी अपनी ज़ुबां के हैं


साग़र चमन को दिल से जो सींचा है इसलिए

हर सू महकते फूल मेरे गुलसितां के हैं


🖋️विनय साग़र जायसवाल 

22/5/1986

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