सुनीता असीम

 रूमाल में रखूँ यादें अपनी लपेट के।

मिटने लगे हैं हर्फ भी ज़हनी सलेट के।

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दुनिया भरी है मोह व माया से चारसू।

जाएंगे एक दिन सभी बिस्तर समेट के।

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झुलसा रही हैं गर्म हवाएं हमें तुम्हें।

लो आ गया है जेठ लिए लू लपेट के।

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कांटे मेरे बदन को तो फूलों की सेज भी।

करवट इधर उधर  ले रही थी मैं लेट के।

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बचपन हुआ जवाँ लो बुढ़ापा भी आ गया।

पर कृष्ण तो मिलेंगे सुना खुद को मेट के।

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सुनीता असीम

१/२/२०२१

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