डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

राम बाण🏹 घर में बैठे हैं छिपकर

बदले मौसम  के दुखियारे,
अब घर में बैठे हैं छिपकर।
बिन मौसम के बादल छाये,
छत से देख रहे हैं छिपकर।

         अर्ज करे थे घर मैं बैठो,
बिन मौसम में जो निकल पड़े।
  जो विचरे थे बिना मास्क के, 
        उन पर डंडे बिफर पड़े।
       पीड़ा के ये काले बादल,
    अब उनको लगते हैं दुष्कर।

       घमंड जैसे काले बादल, 
    आसमान को ही ढाँक रहे।
   सूरज की किरणों को रोके, 
  जो अवसर अपना ताँक रहे।
   खेल-खेल की लुक्का छिप्पी,
     सूरज देख रहे हैं छिपकर।

      हवाओं के तेज प्रचंड ने, 
घमंड उनका जब तोड़ दिये।
  सपने अपने सब उड़ा चले,
दिशा दशा ही सब मोड़ दिये।
       डर के भागे सारे बादल
     भाग रहे हैं कैसे छिपकर।

  कुछ गर्जन कर चमक रहे हैं,
  कुछ तो बेबस ही बरस रहे। 
 कुछ को गर्दन का होश नहीं,
पर बिन मौसम ही गरज रहे।
  बेबस होकर बरस न जाना,
  संबंधो के रिश्ते हैं हितकर।

       गर्जन के उद्घोष निराले,
    भय में रहते बादल काले।
     उनके संरक्षण में निकले,
       देने को मुंह में  निवाले।
     भूखे तन की मजबूरी भी,
उनको देख रही थी छिपकर।
 
पैदल मीलों चलना जिनको,
 रास्ता सड़कें ही नाप रहीं।
   आँखे उनकी आस जगाये,
   भूख से चेहरा भाँप रहीं।
 कुछ मुखड़ों ने मास्क लगाये,
 खबरें छाप रहे हैं छिपकर।


   उम्मीदों ने अनुबंध किये,
 इच्छाओं के सँग निकल पड़े।
     मंजिल से अंजानी राहें,
मौत के मुंह में निकल पड़े।
  रिश्तों की सरकार पुरानी
खोजबीन करती है छिपकर।

     मुआवजे जैसी खेती में,
सरकारी है अनुबंध मिला।
   मौत के आँकड़े मांग रहे,
   मौके का है संबंध खिला।
 ज्ञानमार्ग के खबरी चैनल,
  खबरें भी देते हैं छिपकर।

   बदले मौसम  के दुखियारे,
   अब घर में बैठे हैं छिपकर।
  बिन मौसम के बादल छाये,
  छत से देख रहे हैं छिपकर।

          डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

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