नूतन लाल साहू

गम ही गम है विधाता
स्थानीय समस्या पर आधारित

कोरोणा के कहर का गम
बैमौसम बारिश का गम
बंदरों के उत्पात का गम
जंगली जानवरों के आतंक का गम
बैठकर दुःख न मनाएं तो
क्या करें विधाता
क्या आप चाहते है कि
हम घुट घुट के मर जाएं
हम अपना गम न सुनाएं तो
क्या करें विधाता
हर ओर दुःख का साया
मानाकि हमसे कुछ भूल हुई
पर,सब कुछ उजड़ गया है
कुछ भी नही सुहाता
इतना बेरहम,क्यों हो गया है
तेरी कृपा कहां है विधाता
लौटा नहीं पाऊंगा मैं
जो लिया हूं,धन पराया
ये मुंह कहां छिपाऊ
अब तुम ही,बता दो विधाता
आबाद हुआ,बरबादी
क्या गत मेरी बना दी
अपने ही अंश को कष्ट देना
ये क्या अदा है,तेरी
तेरी इस अदा पर,सभी दुखी है हम
अपने सीने में,गम ही गम है
आंख नम करके सितम ढाता है
जाने क्यों तुम क्यों समझ न पाता है
बैठकर दुःख न मनाएं तो
क्या करें विधाता
अपना गम न सुनाएं तो
क्या करें विधाता
अपने सीने में,गम ही गम है
इतना बेरहम, क्यों हो गया है विधाता

नूतन लाल साहू

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