सुषमा दीक्षित शुक्ला

खुली आंखों से बाट निहारूँ,
 बापू अब सपने में आते ।
 मन ही मन में रोज पुकारूं ,
बापू अब सपने में आते ।
 स्वप्न  देश के वासी बापू ,
रस्ता भूल गए हैं घर की ।
 वरना उनका मन ना लगता,
 सूरत देखे बिन हम सबकी।
 सपने में वैसे ही मिलते ,
जैसे  कहीं गए ना  हो  ।
सूरत वही ,वही पहनावा ,
वही बोल वह नैना  हों ।
जगने पर गायब हो जाते,
 बापू अब सपने में आते।
 खुली आंख से बाट निहारु ,
बापू अब सपने में आते ।
 स्वप्नदोष वह कैसा होगा ,
जिसमें जा बापू हैं जा भटके ।
रोज चाहते होंगे  आना ,
 पर ना जाने क्यों है अटके ।
स्वप्न देश की रस्ता पूछूं,
 मुझको कौन बताएगा ।
सूरत प्यारे  बापू की वो,
मुझको कौन दिखाएगा।
 पहले देर कहीं जो होती,
 मंदिर में परसाद मानते।
 और बाद में बापू से ही ,
उसका पैसा तुरत मांगते ।
अब कितना परसाद चढ़ाऊं,
 क्या  बापू  आ जाएंगे ।
 जगती आंखों देख सकूंगी,
 क्या बापू मिल जाएंगे ।
 खुली आंख से बाट निहारु,
 बापू अब सपने में आते ।
मन ही मन में रोज पुकारूं,
 पर बापू सपने में आते ।

 सुषमा दीक्षित शुक्ला 2 अगस्त 96

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