डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-1
  *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1
सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।
बन महँ लेवन हेतु कलेवा।।
    नटवर लाल नंद के छोरा।
   लइ सभ गोपहिं होतै भोरा।।
सिंगि बजावत बछरू झुंडहिं।
तजि ब्रज बनहीं चले तुरंतहिं।।
    सिंगी-बँसुरी-बेंतइ लइता।
    बछरू सहस  छींक के सहिता।।
गोप-झुंड मग चलहिं उलासा।
उछरत-कूदत हियहिं हुलासा।।
     कोमल पुष्प-गुच्छ सजि-सवँरे।
     कनक-अभूषन पहिरे-पहिरे।।
मोर-पंख अरु गेरुहिं सजि-धजि।
घुँघची-मनी पहिनि सभ छजि-छजि।।
     चलें मनहिं-मन सभ इतराई।
     सँग बलदाऊ किसुन-कन्हाई।।
छींका-बेंत-बाँसुरी लइ के।
इक-दूजे कै फेंकि-लूटि कै।।
     छुपत-लुकत अरु भागत-धावत।
     इक-दूजे कहँ छूवत-गावत ।।
चलै बजाइ केहू तहँ बंसुरी।
कोइल-भ्रमर करत स्वर-लहरी।।
     लखि नभ उड़त खगइ परिछाईं।
      वइसे मगहिं कछुक जन धाईं।।
करहिं नकल कछु हंसहिं-चाली।
चलहिं कछुक मन मुदित निहाली।
     बगुल निकट बैठी कोउ-कोऊ।
     आँखिनि मूनि नकल करि सोऊ।।
लखत मयूरहिं बन महँ नाचत।
नाचै कोऊ तहँ जा गावत ।।
दोहा-करहिं कपी जस तरुन्ह चढ़ि, करैं वइसहीं गोप।
       मुहँ बनाइ उछरहिं-कुदहिं, प्रमुदित मन बिनु कोप।।
                           डॉ0हरि नाथ मिश्र
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