डाॅ० निधि मिश्रा

घडी़ विपति की है घहराई

घडी़ विपति की है घहराई, 
जन मानस अब हुआ उदास, 
पीडा़ हिय कब समझे दाता, 
हर आँखों को इसकी आस।

दुख में डूबे है सब प्राणी, 
काम काज ठप हुआ है आज ,
बेकारी और महामारी, 
यह तो कोढ़ में जैसे खाज।

राग रंग सब भूल गये है, 
रोग रहा है पाँव पसार, 
ओर छोर ना इसका कोई, 
टूट रहे आशा के तार।

समझ न आता क्या मिजाज है? 
बूढे़ ,ना ही बचे जवान,
आयी अब बच्चों की बारी, 
मुह में आये सबके प्राण।

बडी़ क्रूर यह चाल जटिल है, 
करे प्रहार जैसे हो बाज , 
अर्थ, भावना मनःस्थिति अरु, 
ललकारे साहस को आज ।

दया करो अब हे करुणानिधि, 
तुझको नयना रहे निहार ,
दीनबन्धु हे जग के स्वामी , 
रक्षक सबके तुम करतार।

स्वरचित- 
डाॅ०निधि मिश्रा

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