"भरभराकर कर गिर गया नाचीज वह"
सोचता था वह कभी सर्वोच्च खुद को,
जी रहा था जिन्दगी खुद दर्प बनकर,
पी रहा था गर्व को खुद मदहोश हो,
छोड़ता था व्यंग्य सबपर वाण तीखी।
हो गया सबसे अलग एकांतवासी,
आज कोई है नहीं उसका यहाँ पर,
घिर गया है स्वयं की क्रोधाग्नि में अब,
मर रहा है आत्मघाती फँस गया है।
असुरक्षित असंतुलित सबका विरोधी,
चाटता है धूल खटिया खड़ी है अब,
बात करना दूर कोई देखता तक नहीं,
भरभराकर गिर गया नाचीज वह अब।
नमस्ते हरिहरपुर से---डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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