कविता:-
*"ख़्वाहिश"*
"ख़्वाहिशें बढ़ती रही जीवन की,
संग अपनो का-
छूटता रहा।
अपनों के छल से साथी,
जीवन में मन-
टूटता रहा।
कटुता और टूटन मन की,
उससे जीवन-
बिखरता रहा।
बढ़ती रहीं आगे बढ़ने की ख़्वाहिश,
रूका न सफ़र जीवन का-
बस अपनों का संग छूटता रहा।
ख़्वाहिशें बन गई अभिशाप,
जीवन में घर -
ढूँढ़़ता रहा।
ख़्वाहिशें बढ़ती रही जीवन की,
संग अपनों का -
छूटता रहा।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 18-03-2020
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
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