कविता:-
*"दर्प"*
"जब घर कर जाता दर्प मन में,
बिखरने लगते संबंध-
इस जीवन में।
मैं-ही -मैं में जीता जीवन,
अपनों का सम्मान नहीं -
साथी इस जीवन में।
दर्प के कारण ही माटी में
मिलती हस्ती,
देखी साथी हमने-
इस जीवन में।
दर्प तो राजा रावण का न रहा,
हमारा-तुम्हारा-
क्या -इस जीवन में?
दर्प न करना साथी कभी,
सब कुछ दिया प्रभु का-
भजते रहना जीवन में।
प्रभु शरण में रह कर ही,
मिटेगा दर्प मन से-
बढ़ेगा अपनत्व इस जीवन में।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 21-04-2020
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
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