प्रस्तुत है एक छंद
करे शोर घनघोर, बरसे है बड़ी जोर,
घन घूमते है ऋतु, बरखा की आयी है।
लगता तिमिर निशि, जैसा विकराल दिन,
नभ मे अपार देखो, काली घटा छायी है।
पादप हिलाती कभी, मन हरसाती कभी,
वेगवान शीतल ये, चले पुरवाई है।
ऐसी ही बरसात में, पहली मुलाकात में,
जब से है देखा उसे, उर मे समायी है।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
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