अलताफ हुसैन बेलिम

इक उम्र गुजार चुका हूँ बाक़ी उम्र मुझे गुजारने दो


जो मुझसे गुस्ताखियां हुई थी अब उन्हे सुधारने दो


 


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रुख़सत ए जहाँ तो मुझको होना है इक रोज जब


चीख़ पुकार मचेगी जहाँ में तो फ़िर उन्हें पुकारने दो


 


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उसके तन और बदन से खेलें थे हम बहुत हर दफ़ा


उस लम्स की हरारत को ज़ेहन में फिर मुझे उतारने दो


 


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तेरे सुर्ख़ होंठ वफ़ा में ढ़ले हुए गेसू शानों पे लटके हुए


ज़ेरो ज़बर उसके गेसुओं को फ़िर से मुझे सँवारने दो


 


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घर क्या बना लिया मैंने जब उसके घर के सामने ही


अब उजाड़ रहे है लोग घर मेरा तो उन्हें उजाड़ने दो


 


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इस मुक़म्मल जहाँ में उसके जैसा न हँसी कोई सनम


अगर वो ख़ुद पर इतराती हैं यारों तो उसे इतराने दो


 


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तुझें हवा भी छुए तो ग़म अलताफ को होता है बेहद


हर शय की नज़र हैं तुझपे वो नज़्र मुझे उतारने दो


 


 


अलताफ हुसैन बेलिम जोधपुर


        


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