डॉ0 हरि नाथ मिश्र

द्वितीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-43


 


प्रेम बिबस भे तब प्रभु रामा।


कीन्ह खड़ाऊँ भरतहिं नामा।।


      सादर भरत सीष धरि लेवा।


      बिनु संकोच प्रभू जब देवा।।


चरन-पाँवरी जनु प्रभु तुमहीं।


करहिं राजु तहँ नहिं प्रभु हमहीं।।


     तापस-भेष-नेम-ब्रत तुम्हरो।


     कंद-मूल-फल-भोगहिं हमरो।।


जटा-जूट धारन करि सीषा।


करउँ राजु मों देहु असीषा।।


    सीय-चरन गहि कहैं भरत तब।


    कस हम रहब मातु तजि हम अब।।


लछिमन सजल नयन प्रनमहिं तिन्ह।


कहहिं छमहु मों कीन्ह पाप जिन्ह।।


   भरतहिं नेत्र बारि भरि आवा।


   लखन पकरि निज गरे लगावा।।


अवध औरु तिरहुति परिजन सब।


मिलि प्रनमहिं सिय-राम-लखन तब।।


     करि अनुकूलासीष प्रनामा।


     सासु सुनैना पहँ गे रामा।


देहिं असीषहिं सासु सुनैना।


आसिरबचनय मृदुल सुबैना।।


     कहहिं सुफल तव होय मनोरथ।


     लौटहु बैठि परेम-बिजय-रथ।।


दिन्ह अँकवारि मातु सिय पुत्रिहिं।


रुधित कंठ अरु जल भरि नेत्रहिं।।


    सभ मिलि दें आसिष लघु भ्राता।


    नाम शत्रुघन सबहिं जे भाता।।


तीनिउ मिलि तिन्ह गरे लगाए।


बद्ध कंठ कछु कहि नहिं पाए।


दोहा-जथा-जोग सबको किए, सानुज राम प्रनाम।


         बिदा किए सभ जन तबहिं,चले अजुधिया-धाम।।


        निज-निज पालकि मातु सभ,बैठीं जा सम्मान।


         जनक-गुरुहिं सभ रथ चढ़ी,तुरतहिं कियो पयान।।


                         डॉ0हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


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