डॉ0 हरि नाथ मिश्र

अष्टावक्र गीता-12


जग झूठा, तुम शुद्ध हो,करो ब्रह्म सँग योग।


बने न,अष्टावक्र कह,किसी से तव संयोग।।


 


विश्व-मूल है आत्मा,जैसे बुदबुद सिंधु।


करो ब्रह्म सँग मेल तुम,प्राप्त ज्ञान यह बंधु।।


 


नहीं विश्व वह जो दिखे,जैसे रज्जु न सर्प।


रखो योग तुम ब्रह्म से,होत बोध तज दर्प।।


 


सुख-दुख,जीवन-मृत्यु सम,आशा अरु नैराश्य।


रखकर भाव समान तुम,पाओ ब्रह्म उपास्य।।


               © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446373


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