सुनीता असीम

हसीना खूब लगती है संवर कर।


वही आती नज़र देखो जिधर कर।


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चले गजगामिनी बनकर कभी वो।


दिखे है हुस्न उसका उफ़ निखर कर।


***


सभी भंवरे बने रसपान करते।


गुलाबों सी महकती कुछ चटक कर। 


***


चरागे इश्क से जलता बदन फिर।


दिवाने कह रहे इक तो नज़र कर।


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जो लहराए कभी आंचल वो अपना।


गिरे फिर आशिकों के दिल बिखर कर।


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सुनीता असीम


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