सुनीता असीम

तंगदिल कितने ये चहरे हो गए।


बस उदासी के ही पहरे हो गए।


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है बड़ा गुमसुम बशर हर आज तो।


जो निशाँ हल्के थे गहरे हो गए।


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कान होते हैं दिवारों के सुना।


आदमी लेकिन हैं बहरे हो गए।


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जो किया करते थे बातें प्यार की।


वक्त बीता वो भी बूढ़े हो गए।


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जो सरल लगते रहे थे रास्ते।


क्यूं बुढ़ापे में वो टेढ़े हो गए।


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सुनीता असीम


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