संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

 जय माँ शारदे

लवंगलता सवैया


आठ जगण एक लघु


बनाकर भात चली रख शीश , निहार रहे उसका तन बादल। 


चले जब डोल हिले कटि केश , करे हृद चोट बजे पद पायल। 


सरोज समान खिली शुचि देह , अनंग प्रहार हुआ हृद पागल। 


विलोल रही चुनरी शुभ देह , ललाम लगे मुख दाड़िम सा फल। 


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

दुतारांवाली अबोहर पंजाब

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