सुनीता असीम

 बाँह उधड़ी सी आस्तीँ की है।

खींचतानी मगर नहीं की है।

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शर्म से लाल हो रही आँखें।

ये निशानी किसी हसीं की है।

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ख़ार उसमें मुझे चुभेंगे ही।

राह मेरे जो हमनशी की है।

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वो नहीं आसमां से है उतरी।

शक्ल उसकी इसी जमीन की है।

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कामना कुछ नहीं सुनीता की।

स्वार्थ की दोस्ती नहीं की है।

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सुनीता असीम

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