मेरी कलम से....✍️
👸"औरत हूँ मैं" 👸
हाँ औरत हूँ, पर तुम्हारी गुलाम नहीं हूँ।
जो आ जाऊं चंद मीठी बातों में, इतनी भी नादान नहीं हूँ।।
बुनती हूँ सपने, मैं भी अरमान सजाती हूँ
कर लुंगी एक दिन सब पूरे, यही खुद को समझाती हूँ
और तुम....जो मुझ पर अंकुश लगाते हो कि औरत हूँ मैं....
तो रोक दूँ अपने ख्वाबों को, थाम लूँ अपने अरमानों को...और समेट लूँ खुद को तुम्हारी इस चाहरदीवारी में
तो ये मुमकिन नहीं होगा......चूंकि इतनी भी आसान नहीं हूँ मैं....
हाँ औरत हूँ, पर तुम्हारी गुलाम नहीं हूँ मैं ।।
हाँ हौंसलों की उड़ान मुझे भी भरनी है,
कायम एक मिसाल मुझे भी करनी है,
तो क्या हुआ...?
जो तुम साथ नहीं दोगे ये बोलकर कि औरत हूँ मैं....
तो भर नहीं सकती उड़ान, पूरे कर नहीं सकती मैं अपने अरमान और छू नहीं सकती मैं आसमान..
तो यह सम्भव नहीं होगा....
जो कर न पाऊं अपने सपनों को साकार,
इतनी भी परेशान नहीं हूँ मैं.....
हाँ औरत हूँ, पर तुम्हारी गुलाम नहीं हूँ मैं ।।
क्यों सहूं मैं तुम्हारे जुल्म-ओ-सितम....?
तो क्या फ़र्क पड़ता है, जो मेरे पिता ने नहीं दी तुम्हें दहेज़ में रकम....?
मेरी माँ ने मुझे जीवन जीने का मतलब सिखलाया है,
वहीं मेरे पिता ने तुम्हारे साथ चलने के काबिल बनाया है,
तुम ठुकरा दो मुझको, इतनी तुम्हारी "औकात" नहीं है...
ब्याह कर आयी हूँ इस घर में, महज़ चंद दिनों की मेहमान नहीं हूँ .....
हाँ औरत हूँ, पर तुम्हारी गुलाम नहीं हूँ
हाँ गुलाम नहीं हूँ ।
- लवी सिंह ✍️
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