सुनीता असीम

समसामयिक

बढ़ गए हैं काफिले खामोशियों के।

कदम कम साथ हैं अब साथियों के।

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बदन से जान का है फासला कम।

गिरे हैं फूल कितने टहनियों के।

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तबाही का है मंज़र चारसू अब।

लगे झटके हैं सबको बिजलियों के।

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हैं चहरे श्वेत पड़ते आज सबके।

उड़े हैं रंग भी तो तितलियों के।

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कहीं खाना कहीं सिन्दूर गायब।

कदम ठिठके हुए हैं पुतलियों के।

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सुनीता असीम

२१/५/२०२१

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