डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दसवाँ-5
  *दसवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
छूइ चरन तब धाइ प्रभू कै।
करन लगे स्तुती किसुन कै।।
    हे घनरूप सच्चिदानंदा।
    हे जोगेस्वर नंदहिं नंदा।।
अहउ तमहिं परमेस्वर नाथा।
सकल चराचर तुम्हरे साथा।।
     तुमहिं त जगतै स्वामी सभ जन।
     अंतःकरण-प्रान अरु तन-मन।।
तुम्ह अबिनासी अरु सभ-ब्यापी।
रहहु अदृस सभकर बपु थापी।।
    तुम्ह महतत्वयि प्रकृति स्वरूपा।
    सुक्ष्मइ सत-रज-तमो अनूपा ।।
तुम्ह परमातम जानन हारा।
सूक्ष्म-थूल-तन कर्मन्ह सारा।।
     समुझि न आवै तुम्हरी माया।
     जदि उर बृत्ति-बिकार समाया।।
तुमहीं अद्य-भविष्यत-भूता।
नाथ भगत जन एकल दूता।।
    बासुदेव प्रभु करहुँ प्रनामा।
     पर ब्रह्महिं प्रभु सभ गुन-धामा।।
प्रनमहिं हम दोउ भ्रात तुमहिं कहँ।
तुमहिं भगावत पाप मही कहँ।।
     लइ अवतारहिं धारि सरीरा।
     हरहिं नाथ सभ बिधि जग-पीरा।।
पुरवहिं प्रभू सकल अभिलासा।
बनै निरासा तुरतै आसा ।।
     साधन-साध्यइ अहहिं कन्हैया।
     मंगल अरु कल्यान कै नैया।।
परम सांत जदुबंस-सिरोमन।
निसि-दिन रहैं सबहिं के चित-मन।।
      प्रभु अनंत हम सभ प्रभु-दासा।
       प्रभुहिं त आसा अरु बिस्वासा।।
दोहा-नारद कीन्ह अनुग्रहहि, भयो दरस प्रभु आजु।
        तारे प्रभु हम पापिहीं,सुफल जनम भे काजु।।
                    डॉ0हरि नाथ मिश्र
                      9919446372

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