अनुराग मिश्र

हम निरंतर बढ़ चले हैं, प्रगति की  एक राह में l
दया करुणा भावनाओं, से रहित संसार में ll
धूल ने अब लील ली, जो लालिमा थी भोर में l
पंछियों की चहचहाहट, दब गयी अब शोर में ll
जंगलों के  जीव जंतू , में भरा आवेश है l
प्रेम था जो मानवों से, अब कहाँ वो शेष है ll
है जमीं बंजर, कहीं तो बादलों में रोष है l
है प्रकृति बेजार सारी पर किसे अब होश है ll
राह तकती माँ की आंखे, हो रही निष्प्राण हैं l
है हृदय विह्वल विरह से, पर उसे ना भान है ll 
साधनों, संसाधनों पर, प्रथम अधिकार हो l 
हों अधम जितने भी भरसक ,सब सहज स्वीकार हों ll
नदियां झरने पर्वत सागर, हो उठे व्याकुल सभी l
करके दूषित इस धरा को, लक्ष्य है मंगल अभी ll
जीवन की इस निर्बाध गति को, फिर  अगर यूं थामना l
कारणों को बदल देना, है प्रभु ये कामना ll


अनुराग मिस्र


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