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गीत- दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं....... दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

गीत- दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं.......
चुप्पी  के   दिन
खुशियों के दिन
भीगे सपनों की बूंदों के दिन, आते जाते हैं,
दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं।

कभी निगाहों में सूरज था, कभी अंधेरों का साया,
कभी हँसी थी इन होंठों पर कभी थी अश्कों की माया।
हँसी के दिन, 
तन्हा के दिन,
साँसों की गवाही के दिन कुछ तो बताते हैं,
दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं।

कल तक जो कांधा देते थे, आज वही तो बोझ बने हैं,
कल तक रिश्ते फूलों जैसे, अब कांटे क्यों बने हैं?
साथ   के   दिन, 
और दूर के दिन,
अपनेपन की भूलों के दिन बस रुलाते हैं,
दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं।

कभी हवा ने गीत सुनाया,कभी तूफ़ानों ने लूटा
कभी प्रेम का दीप जला, कभी विश्वासें भी टूटा,
दीप     के    दिन, 
और राख के दिन,
मन के उजले पाख के दिन, याद रह जाते हैं,
दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं।

एक दिन था चूड़ी खनकी थी, एक दिन चूड़ी टूटी,
एक दिन पायल हँसती थी, एक दिन साँकल भी रूठी,
संग   के   दिन, 
संजोग के दिन,
नयनों की उस ओस के दिन,अब तो बह जाते हैं
दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं।

सुन मेरे मन! ये जीवन है, बदले क्षणों की माया,
हर दिन में इक सीख छुपी है,हर दिन में है छाया
कल     के     दिन, 
और आज के दिन
एक-एक मोड़ के राज के दिन, बस समझाते हैं,
दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं।
        - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल 

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