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डॉ शिव शरण श्रीवास्तव अमल

ज्योतिष क्या है ?


दुनिया में लगभग सभी लोग ज्योतिष के बारे में किसी न किसी रूप में चर्चा करते है,कोई इसे शत प्रतिशत सही मानता है तो कोई इसे अंध विश्वास ,तो कोई इसके बारे में स्पष्ट राय नहीं रखते परन्तु किसी न किसी रूप में मानते जरूर है ।


    वास्तव में ज्योतिष एक विशुद्ध विज्ञान है जो गृह,नक्षत्र,खगोलीय घटनाएं आदि पर आधारित है ।


      जिस तरह किसी रोग के निदान हेतु एक कुशल चिकित्सक दवा के साथ परहेज़ बताता है ,तथा यदि रोगी चिकित्सक द्वारा बताई औषधि को सही तरीके से इस्तेमाल करता है और चिकित्सक द्वारा बताए अनुसार परहेज़ करता है तो उस रोग के समाप्त हो जाने की पूरी,पूरी संभावना रहती है,फिर भी यदा_कदा फायदा नहीं भी मिलता है,क्योंकि कुछ चीजें ईश्वर के अधीन रहती है,ठीक इसी तरह ज्योतिष के बारे में भी समझना चाहिए,एक कुशल ज्योतिषी द्वारा बताए गए उपाय के साथ ही साथ यदि परहेज़ (अचार, ब्यव हार) का पालन किया जाय तो सफलता की पूरी,पूरी संभावना रहती है ,फिर भी यदि यदा _कदा पूरी तरह सफलता न मिले तो ज्योतिष को अंध विश्वास कहना किसी भी तरह उचित नहीं है।


     वस्तु तः जिस तरह तेज धूप से बचने के लिए छाता अथवा तेज बारिश से बचने के लिए रेन कोट सहायक है उसी तरह ज्योतिष को भी मानना चाहिए।


     ज्योतिषीय उपाय के साथ ही साथ अचार, ब्यव्हार में आवश्यक सुधार करने से निश्चित रूप से लाभ उठाया जा सकता है ।



डॉ शिव शरण श्रीवास्तव अमल


(कवि, लेखक, वक्ता, ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ)


9424192318


श्रीकांत त्रिवेदी

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योग पर कुछ दोहे


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करे चित्त की वृत्ति का, है निरोध ये योग।


दृष्टा को निज रूप में , स्थित कर दे योग ।।


 


आठ अंग हैं योग के , पातंजलि अनुसार।


सबकी महिमा एक सी, ज्ञानी कहें विचार।।


 


प्रथम पंच 'यम' हैं यहां, सत्य,अहिंसा,संग।


ब्रह्मचर्य , अस्तेय भी , अपरिग्रह के संग ।।


 


'नियम' पांच भी अंग है, शौच और संतोष।


स्वाध्याय कर ,तप करें, ईश शरण मंतोष।।


 


अब तृतीय जो अंग है,उसका"आसन" नाम।


हो जाए जब सिद्घ तो, पूर्ण सभी हों काम ।।


 


चौथा तीन प्रकार के , " प्राणायाम" महान ।


सांस सांस जब सिद्ध हो,योग बने आसान।।


 


पंचम  " प्रत्याहार" है ,  करें विषय सब दूर ।


इन्द्रिय सब निज चित्त वश,अंकुश हो भरपूर


 


षष्ठम अंग है " धारणा" कठिन बहुत ये काम।


मन को स्थिर कीजिए, हर पल आठों याम ।।


 


सप्तम अंग जो "ध्यान" है, चित्त लगे इक तार।


जो योगी का ध्येय हो , उस पर सब निस्सार ।।


 


इन सातों को साधिए, अष्टम मिले "समाधि"।


मोक्ष और कैवल्य दे, हर कर हर भव व्याधि।।


 


परम शक्ति को नमन है,दे हम सब को ज्ञान।


होकर  योग  प्रवीण  हो , आर्यावर्त महान ।।


 


योग दिवस है आज ये,सब के लिए विशेष।


सभी सुखी हों विश्व में , ये कामना अशेष ।।


श्रीकांत त्रिवेदी


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डाॅ विजय कुमार सिंघल

*अपनी हिन्दू संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ है*


इस समय जब सारा संसार कोरोना वायरस जैसी भयावह समस्या से जूझ रहा है तो सभी यह अनुभव कर रहे हैं कि पाश्चात्य जीवन शैली और संस्कृति के बजाय हमारी प्राचीन हिन्दू जीवन शैली और संस्कृति ही स्वस्थ और सुखी रहने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। इसके कई कारण हैं जिनकी हम संक्षेप में यहाँ चर्चा करेंगे। 


1. अभिवादन करने की हमारी पद्धति ‘नमस्ते’ इस समय सारे संसार द्वारा अपनायी जा रही है। इसमें दोनों हाथ जोड़कर और हृदय के सामने रखकर कुछ सिर झुकाकर प्रणाम किया जाता है। इससे दूर से ही और एक साथ ही हजारों व्यक्तियों का अभिवादन किया जा सकता है। दोनों हाथ सामने रहने से किसी प्रकार के छल की कोई संभावना नहीं है। सिर झुकाने से विनम्रता का भाव आता है। हमारी संस्कृति में बड़ों का अभिवादन भी हाथ मिलाकर नहीं बल्कि पैर छूकर किया जाता है। विशेष अवसरों पर गले भी लगाया जा सकता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है।


2. अपने निवास और विशेष रूप से रसोई घर में जूते चप्पल उतारकर घुसना भी हमारी संस्कृति का अंग है। इससे बाहर के वातावरण के हानिकारक तत्व हमारे घर में प्रवेश नहीं करते और भोजन शुद्ध रहता है। वर्तमान में इस नियम में शिथिलता आ जाने के कारण बहुत हानि हो रही है।


3. हाथ पैर मुँह धोकर भोजन करना भी हमारी प्राचीन परम्परा रही है। इस परम्परा से हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता की कल्पना की जा सकती है। हाथ-पैर-मुँह आदि धोने से शरीर की गर्मी शान्त होती है और व्यक्ति आनन्दपूर्वक भोजन करने के लिए तैयार हो जाता है। इसके अनेक लाभ होते हैं। 


4. शाकाहार हमारी संस्कृति का बहुत महत्वपूर्ण अंग रहा है। मुख्य रूप से पेड़ों के फलों का ही भोजन हमारे पूर्वज किया करते थे, जो प्राकृतिक रूप से प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होते थे। बाद में अन्न भी उगाया जाता था और उससे भोजन बनाया जाता था। इसीकारण पेड़-पौधों-वनस्पतियों की पूजा करना हमारे धर्म का अंग बनाया गया। हमारी संस्कृति में कभी माँसाहार का प्रचलन नहीं रहा। हमेशा पशुओं के पालन और उनके दुग्ध आदि के सेवन पर बल दिया जाता था। गोहत्यारों को मृत्युदंड भी दिया जाता था। पशुओं पर दया करने का पाठ हमें बचपन में ही सिखा दिया जाता है। हर घर में पहली रोटी गाय की और अन्तिम रोटी कुत्ते की अवश्य बनायी जाती है। हमारी संस्कृति में चींटी से लेकर हाथी तक के कल्याण की कामना और व्यवस्था की गयी है।


5. पृथ्वी को माता मानना हमारी संस्कृति की विशेषता है। पृथ्वी हमें सबकुछ देती है, माता की तरह हमारा पालन-पोषण करती है। इसलिए हम उसके शोषण में नहीं, बल्कि दोहन में ही विश्वास करते हैं। हमारी खेती भी इस प्रकार होती थी कि पृथ्वी की उर्वरा शक्ति हमेशा बनी रहे। उसमें हानिकारक खादों का नाम भी नहीं था, बल्कि गाय के गोबर को खेतों में डाला जाता था। ब्रह्मांड में उचित सन्तुलन बनाये रखने का प्रयास करना हमारी संस्कृति की ही विशेषता है।


6. हमारी संस्कृति में शवों का दाह संस्कार करना अनिवार्य होता था। इससे शरीर के सभी रोग और उनके कीटाणु आदि वहीं समाप्त हो जाते थे। उनकी कब्र आदि के लिए किसी स्थान की भी आवश्यकता नहीं थी, केवल कुछ लकड़ी खर्च होती थी, जो हर जगह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। आज इस परम्परा का महत्व संसार में सभी स्वीकार कर रहे हैं।  


7. हमारी संस्कृति में दैनिक हवन पर बहुत जोर दिया जाता था। इसके द्वारा वातावरण की शुद्धि करना और रोगों से दूर रहना ही मुख्य उद्देश्य था। अपने प्रभु पर विश्वास अर्थात् आस्तिकता का निर्माण होना भी इसका एक अन्य उद्देश्य था। आजकल इसका उपहास किया जाता है, लेकिन इसकी महत्ता समय-समय पर सामने आ ही जाती है, चाहे वह खतरनाक गैसों के रिसाव के समय हो या कोरोना जैसे वायरस के समय। 


इन सब उदाहरणों से पता चलता है कि हमारे पूर्वज बहुत दूरदर्शी और महान् थे, जिन्होंने स्वस्थ और सुखी रहने के ये सूत्र अपनी संस्कृति में सम्मिलित किये थे और जिनका पालन करना प्रत्येक के लिए अनिवार्य होता था। जो इनका पालन करते थे उनको ही आर्य कहा जाता था और जो इनका पालन नहीं करते थे उनको अनार्य अर्थात् राक्षस जैसे नामों से पुकारा जाता था। संसार को पुनः इस संस्कृति  को पूर्ण रूप से अपनाना चाहिए। हमारे पूर्वजों ने जो नारा दिया था- ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ उसका भी उद्देश्य यही था। उनके स्वप्न को साकार करने का प्रयास करना हमारा परम कर्तव्य है।


*-- डाॅ विजय कुमार सिंघल*


श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार

आपका व्यक्तित्व।
क्या आप पढ लिख जाने के बाद 
उस पढाई का सद्पयोग करते है।
क्या आप किसी बडे पद पर है।
और विनम्रता से रहते है।
क्या आपके मन मे किसी दिन दुखी व्यक्ति, पशु पक्षी के प्रति करूणा का भाव आता है।
क्या आप बात बात पर अंह ना लाकर चलो होगा, पर रहते है।
क्या आप तन से नही मन मस्तिष्क से अपने आप को स्वच्छ महसूस करते है।
क्या आप हमेशा सच का साथ देते है।
क्या आप ईमानदारी की कमाई ग्रहण करते है।
और क्या आपके मन मे ईषा और काम ,राग,और द्धेष की भावना नही है।
अगर उपरोक्त बाते आप मे है। तब आप स्वयं एक संत है। आपको फिर किसी अन्य बातो मे समय नष्ट नही करना है।
आप देव तुल्य है।
और यदि इसमे से एक दो भी अवगुण है तो तत्काल हटाने की कोशिश करे, समय कम है सांसो का साथ पता नही कब तक है। तो ईश्वर के सामने खडा होना है।
श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार


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