सुषमा दीक्षित शुक्ला

जल के बिना न जीवन है


 


जल ही तो जीवन है यारों ,


सूक्ति सुनी ये होगी ।


जलमय ही शरीर मानव का,


 मुक्ति इसी से होगी ।


 इंद्रदेव अरु वरुण देव भी ,


जलमय रूप दिखाते ।


 नदिया, सागर ,बरखा ,झरने ,


जल के स्रोत कहाते ।


जल के कितने रूप निराले ,


जल के बिना न जीवन है ।


अमृत बनता विष बन जाता ,


बन जाता ये दर्पन है ।


जल में भोजन मत्स्य रूप में ,


और कई फसलें होती ।


जल में खिलता पुष्प पद्म का,


 जल से ही आंखे रोती ।


 बिना नीर के जीवन कैसा 


सत्य बात है मीत यही ।


 धरती से अंबर तक फैला ,


नदिया का संगीत यही ।


विमल सलिल हम सबका जीवन,


 इसको मत बर्बाद करो ।


वृक्ष उगाओ धरा बचाओ,


 जनजीवन आबाद करो ।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डाॅ०निधि अकबरपुर,अम्बेडकरनगर

नाम-डाॅ०निधि 


पति का नाम-डाॅ०सत्येन्द्र नारायण मिश्र


जन्मतिथि -20 फरवरी


शिक्षा -परास्नातक (अंग्रेज़ी एवं समाजशास्त्र) बी०एड, पीएच ०डी०,


व्यवसाय- अध्यापन


पता -अकबरपुर, अम्बेडकरनगर। 


रचनाएँ-साहित्य रश्मि एवं दर्शन रश्मि में निरन्तर प्रकाशित। 


 


रचनाएँ -


 


1## *दिव्य ज्योति* ##


 


 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके, 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके। 


 


ये चन्द्र सूर्य सब ग्रह नक्षत्र, 


तेरी ज्योति से ही प्रकाशित हैं। 


ये दसों दिशाओं में आठो पहर ,


तेरी ज्योति ही आती जाती है। 


ये जड़ -चेतन, जल -स्थल, 


तेरी ज्योति की माया जागृत है, 


पत्ता पत्ता, कोना कोना, 


तेरी ज्योति से ही सुशोभित है। 


तू मुझमे है मै तुझमें हूँ, 


तेरी ज्योति ही सबमें उजागर है।


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके। 


 


यह ज्योति अलौकिक इक आभा, 


ब्रह्माण्ड को जिसने रचाया है। 


ये सिया -राम, राधा -कृष्णा, 


सबमें तेरी ज्योति निराली है। 


कोटिक अनन्त देव देवी, 


तेरी ज्योति से ही उद्भासित हैं।


जिसने पहिचाना ज्योति तेरी, 


वह सदा ही आनन्दित है। 


रमते रमते तेरी ज्योति में, 


सूर, कबीर ,तुलसी ,रैदास हुए। 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके ।


 


तेरी ज्योति का ना कोई आदि न अन्त, 


तेरी ज्योति सदा ही स्थिर है। 


यह ज्योति नव दुर्गा रूपा, 


सब विद्याओं में भाषित हैं। 


यह ज्योति सत्य शिव सुन्दर, 


परम शान्त शाश्वत है। 


जिसने देखा जिस भाव इसे, 


उस भाव में ही दिख जाती है। 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके ।


 


यह ज्योति सुरों की राग रागिनी, 


संगीत की धुन में बजती है। 


यह ज्योति ओऽम् उच्चारण स्वर, 


जिस धुन पर वसुधा नाचती है ।


ये वेद, पुराण,ग्रन्थ,उपनिषद् ,


सब ज्योति की महिमा गाते हैं। 


ये ज्योति हिमालय का शिव है, 


गंगा का उद्गम स्थल है। 


ज्योति भेद-अभेद बड़ी निर्मल,


मोक्ष मार्ग दिखलाती है। 


यह जीवन-मृत्यु नही कुछ भी, 


सब जीव- ब्रह्म का संगम है। 


इक ज्योति जो बाहर आती है, 


जा दिव्य ज्योति मिल जाती है। 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके। 


तुम दिव्य ....       


 


2-🌹मेरी अभिलाषा 🌹


 


ये गहन अंधेरा छटने दो, सूरज विहान का उगने दो, 


कल नयी किरण की आभा से, 


संतप्त हृदयों को दमकने दो। 


 


जब नव्य रश्मियाँ बिखरेंगी, 


सब आपस में मिल जायेंगे, 


प्यासी रुहों की खातिर तब, 


अन्तरिक्ष शान्ति बरसायेगा। 


 


ये दिवा तिमिर हर लेगी तब, 


दस दिशा दीप्ति फैलायेगी,


सुरभित सुमनों का खिल जाना, 


विष की स्मृति बिसरायेगी ।


 


जब हरे खेत लहरायेंगे, 


धरती सोना बरसायेगी, 


तब कृषक श्रमिक न हो करके, 


पालक पोषक कहलायेंगे। 


 


जब धरा झूम कर गायेगी, 


तरनी करताल बजायेगी, 


हर आँखों से टपका आँसू, 


मुक्ताहार बन जायेगी। 


 


जब गाँवों की गोरी जैसे, 


शहरी बाला शरमायेगी, 


तब संस्कृति भारतमाता की, 


फिर से जीवित हो जायेगी ।


 


जब भाव भरे भारतवासी, 


करुण दृष्टि अपनायेंगे, 


मोर थिरकेंगे आँगन में, 


गइया पय सरित बहायेगी। 


 


जब ऋषियों मुनियों के अर्चन से,


नव ग्रह सब देव प्रसन्न होंगे, 


तब सकल धर्म के ठेकेदार ,


ठगे धरे रह जायेंगे ।


 


जब पंडित नीति निपुण होगा,


नैतिक धर्म परम होगा, 


तब अष्ट सिद्धि नौ निधियाँ भी, 


घर -घर आवास बनायेंगी। 


 


सब कष्ट शमित हो वसुधा से, 


औषधि की नही जरुरत हो, 


जन मानस की मीठी बोली, 


सुरभित आसव बन जायेगी। 


 


तब सकल विश्व भारत माँ के, 


चरणों में नत मस्तक होगा, 


मेरे भारत का यशोगान, 


सूरज चन्दा भी गायेगा। 


 


3-*##एहसास ##* 


 ****************** 


 *मेरी खातिर तुझमें जिन्दा कोई* *लम्हा होता।* 


 *बेइन्तहाँ टूट के मै न हरगिज* *बिखरा होता ।।* 


 


 *मेरा एहसास तेरे दिल में जो पनपा* *होता।* 


 *साज के साथ मै भी नगमा बन* *गया होता।।* 


 


 *बेसबब आस में मै न तेरी यूँ खोया* *होता।* 


 *कलम के साथ ये कागज भी न* *रोया होता।।* 


 


 *खौफ़ खाती है रूह मेरी, तेरी तंज* *बातों का,* 


 *काश मुझसे भी कभी प्यार से* *बोला होता।।* 


 


 *तेरी आँखों,तेरे लफ़्जों में न मुझे* *ठौर मिला।* 


 *बन के आँसू ही सही पलकों पे* *ठहरा होता।* 


 


 *मेरे तबस्सुम में छिपे दर्द को जो* *देखा होता।* 


 *दर्द दिल का न मेरे हद से यूँ गुजरा* *होता।।* 


 


 **सोच में तेरी ये गुजरे है मेरी शाम* *-ओ-सहर* ।


 *कोई तारा मेरी मन्नत का भी टूटा* *होता।।* 


 


 *हर जगह याद तेरी याद चली आती* *है *।** 


 *मेरी साँसों पे भी तेरा ही तो पहरा* *होता।।* 


 


 *मेरे तरन्नुम में फ़क़त तेरा ही चर्चा* *रहता।* 


 *ग़ज़ल की तरहा तू भी मेरा बन* *गया होता।।* 


 


 *मिटा लो शिकवे गिले पास बैठ* *के दो पल।* 


 *सुना है साँसों का सिमटा सा दायरा* *होता।।* 


 


 4-*#############* 


*##आदमी##*


*############*


 


सौ बार टूट कर जुड़ता है आदमी, 


निज कर्म से महान बनता है आदमी। 


 


है आदमी गुरु भी, ईश्वर भी आदमी, 


गर्दन झुका के देख अंदर का आदमी।


 


भृकुटी में लिए ज्वाला,वक्ष में ये ब्रह्म को, 


क्या-क्या न कर सके ये गुणवान आदमी।


 


नदियों को बाँध दे, हवाओं को मोड़ दे, 


पानी से आग पैदा करता है आदमी। 


 


धरती का सीना चीर के अमृत निकाल दे, 


पर्वतों में राह बनाता है आदमी। 


 


ज़मी क्या ,आसमाँ में उड़ता है आदमी, 


चाँद के दर पे, घर को बनाता है आदमी। 


 


तूफाँ को पार कर जो कश्ती निकाल ले, 


सचमुच में वही तो है फौलाद आदमी। 


 


पापों का प्रलय भी रोक सकता आदमी, 


थोड़ी सी जो मानवता भर ले ये आदमी। 


 


कुछ आदमी यहाँ पर ऐसे भी हैं सुनो, 


जो आदमी के नाम पर कलंक आदमी। 


 


है खून एक सा ही, साँसें भी एक सी, 


मज़हब के नाम पर क्यूँ ,बँट गया है आदमी। 


 


निज कर्म और धर्म से गिरा जो आदमी, 


पशुता को मात देता ऐसा ही आदमी। 


 


है कौन वह दरिन्दा आदमी ज़रा बता? 


आब-ओ-हवा में जहर घोलता सा आदमी। 


 


है बेच देता देश व अपने ज़मीर को, 


कितना गिर गया है मक्कार आदमी।


 


मंहगी से मंहगी चीज़ खरीदता है आदमी, 


नींद सुख,सूकूँ की साँस को तरसता सा आदमी।


 


खुद को ही खुदा मान अकड़ता था आदमी, 


अब आदमी से डर -डर जीता है आदमी। 


 


5-#कसक#


          ************


समझ नहीं आता, 


खुद को समझाऊँ,


या चुप हो जाऊँ। 


उलझन मन की ,सुलझाऊँ ,


याऔर उलझती ,मै जाऊँ। 


वेदना सह पीड़ा की,परिभाषा बनूँ,


या कोई दवा मै बन जाऊँ। 


द्वन्द चल रहा, 


अन्तस तल पर,लडू़ँ,


या स्वतः पराजित हो जाऊँ 


अधिकार नही मेरा कोई, 


कर्तव्य निर्वाह करती जाऊँ।


समझ नही आता खुद को, 


समझाऊँ या चुप हो जाएं। 


 


जब से जन्मी,


दो सदन सजाऊँ,


पर कहीं भी,


नाम नही पाऊँ,


जिद् आती है ,


एक गेह बनाऊँ, 


निज नाम की, 


पट्टी लगवाऊँ, 


सब रूठे हैं मुझसे, 


मै भी रूठूँ,


या उन्हें मनाऊँ,


जब झूठे हैं बन्धन सारे,फिर


क्यूँ,व्यर्थ परिश्रम करती जाऊँ


समझ नही आता 


खुद को समझाऊँ


या चुप हो जाऊँ ।


 


सबके हृद की, पीड़ा समझूँ,


निज घाव किसे,मै दिखलाऊँ।


पत्थर दिल की, यह नगरी, कब तक आँसू से पिघलाऊँ।


दूषित दृष्टि से रक्षा हेतु, 


कब तक,पलक झुका 


जीती जाऊँ ।


सुनसान अंधेरो के भीतर, 


कब तक सिसकूँ,मै चिल्लाऊँ, 


मुह सी कर जी नही पाऊँगी, 


खुद में घुट कर ना मर जाऊँ। 


समझ नही आता 


खुद को समझाऊँ 


या चुप हो जाऊँ। 


 


यह एक स्त्री की 'कसक"नही, 


हर स्त्री की यही कहानी है,


मेरे पन्नों पर अंकित,


परिचत सी व्यथा पुरानी है।


 


 *स्वरचित* 


 *डाॅ०निधि* *अकबरपुर,अम्बेडकरनगर।*


डॉ. वंदना सिंह लखनऊ

बारिश 


इस बार जब आना 


संग ले आना 


किसी अपने को 


मेरे सपने को


 कहना हवा से 🌪


थोड़ा धीरे चले  


मद्धम मद्धम


 आकर जोर से 


मेरा आंचल ना उड़ाना💃


 बारिश इस बार जब आना . . 


कहना बिजली से ⚡


यूँ कड़क के न चमके✨


 हमें याद आ जाएगा 


डर के उनकी बाहों में 


सिमट जाना☺👀


 बारिश इस बार जब आना . . 


बरसना झूम के कि 


तन मन भीग भीग जाए🌾🌾🌾🌾


 हमें इस बार फिर से है 


कागज की नाव तैराना🚤


 बारिश इस बार जब आना.. 🌧🌧🌈


 बंद कमरों की उबासी को😴


 चेहरे की उदासी को😔


 दिखाकर रूप मस्ताना💋


 हौले से चली जाना 👋


बारिश इस बार जब आना 


बारिश इस बार....


स्वरचित - डॉ वन्दना सिंह लखनऊ


Self written by -


आशा त्रिपाठी

*हर भारतवासी अब चाहे,*


*मान और सामान देश का*।।


 


देश की माटी, देश का पानी


देश की थाती देश का धन हो।


नही रहे निर्भरता कोई ,


श्रमयोगी सा साधक मन हो।


नही चलेगा अब भारत में,


 चीनी चाल के क्रूर वेष का।


*हर भारतवासी अब चाहे*,


*मान और सामान देश का*।।


 


अपनी हो श्रम गति स्वदेशी,


आत्मविश्वास का प्रखरित बल हो।


दृढ संकल्प ले बढ़े सतत हम,


अटल कर्म से सभी सबल हो ।।


परदेशी आयात बन्द हो,


स्वदेशी से सम्मान देश का।।


*हर भारतवासी अब चाहे*,


*मान और सामान देश का*।।


आत्म शक्ति से निखरे भारत,


ग्राम,नगर,घर-घर कौशल हो।


विदेशी निर्भरता को त्यागकर,


जय किसान का अद्भूत बल हो।


अपना खाना,अपना पानी,


अपना हो परिधान देश का।


*हर भारतवासी अब चाहे,*


*मान और सामान देश का*।।


परदेशी वैसाखी लेकर,


 विश्वगुरू ना बन पायेगे,


स्वदेशी मंत्र की प्रतिज्ञा से,


माटी में सोना उपजायेगे।


ग्राम-ग्राम उद्योग लगाकर,


बचायेगे स्वाभिमान देश का।


*हर भारतवासी अब चाहे*,


*मान और सामान देश का*।


घर-घर में खुशहाली होगी,


देश प्रेम का भाव जगेगा।


जन-जन की किस्मत बदलेगी,


हर घर को अब काम मिलेगा।


चरण चूमती मंजिल होगी,


समृद्धि और सोपान देश का।।


*हर भारतवासी अब चाहे*,


*मान और सामान देश का*।।


✍आशा त्रिपाठी


     28-06-2020


एस के कपूर "श्री हंस*" *बरेली*।

*रखें खूब ध्यानअपना कि ये*


*कॅरोना फैल रहा है।।।।।।।*


 


कहाँ जा रहे हैं आप कि ये


कॅरोना बाहर ही खड़ा है।


गया नहीं कॅरोना अभी कि


अपनी जिद पर अड़ा है।।


अनलॉक जरूर हुआ है


पर आर्थिक गति के लिये।


पर आप रहें संभल कर ही


कि ये संकट बहुत बड़ा है।।


 


हाथ धोते रहें बार बार जब


भी कुछ करें नया आप।


पता नहीं कि कहाँ पर है


कॅरोना ने छोड़ी कोई छाप।।


सावधानी हटी दुर्घटना घटी


बिलकुल सिद्ध है आज तो।


कि अनजाने में न ओढ़ कर


बैठ जायें कॅरोना का लिहाफ।।


 


दो ग़ज़ दूरी, नियमित गरारे,


और चेहरे पर लगा रहे मास्क।


सैनिटाइजर पास में और जायें


बाहर जब जरूरी हो टास्क।।


बचाव ही सुरक्षा और देखो


जान जहान दोनों एक साथ।


आज की तारीख घर अपना


"बेस्ट डील दैट रियली रॉक्स"।।


 


न जायें बाहर निकल कि नहीं


कॅरोना से कोई कोना खाली।


मत खेलो जान से तुम कि यह


पड़ेगा खिलौना बहुत भारी।।


यह अदृश्य विषाणु है कुछ 


जरूरत से ज्यादा ही संक्रमित।


बस रहें आप जरा सतर्कता से


क्यों लाये रोना धोना ये बबाली।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली*।


मोब।। 9897071046


                     8218685464


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(तुम्हारे बिना)


रौशनी लगती फ़ीकी तुम्हारे बिना,


चाँदनी लगती तीखी तुम्हारे बिना।


चलातीं लगे छूरियाँ दिल पे अब तो-


सभी बातें सीधी तुम्हारे बिना।।


 


नहीं भाए मौसम सुहाना भी अब तो,


पिया-पी पपीहा का गाना मधुर तो।


लगे सूनी-सूनी सुनो हे प्रिये अब-


मेरे मन की वीथी तुम्हारे बिना।।


 


रंग में कोई रंगत नहीं दीखती,


संग के संग संगत नहीं सूझती।


फूल भी चुभ रहे खार की ही तरह-


लगे मधु न मीठी तुम्हारे बिना।।


 


लगे जैसे क़ुदरत गई रूठ अब तो,


लगे प्रेम-सरिता गई सूख अब तो।


वो तेरा रूठना फिर मनाना मेरा-


लगे बात बीती तुम्हारे बिना।।


 


आके फिर से बसा दे ये उजड़ा चमन,


ताकि खुशियाँ मनाएँ ये धरती-गगन।


अमर प्रेम-रस को मेरी रूह यह-


बता कैसे पीती तुम्हारे बिना??


 


मेरी आत्मा, मेरी जाने ज़िगर,


तुम्हीं हो ख़ुदा का ज़मीं पे हुनर।


तुम्हें देख कर ही तो गज़लें बनीं-


शायरी लगती रीती तुम्हारे बिना।।


 


ज़ुबाँ शायरी की तुम्हीं हो प्रिये,


कहकशाँ सब सितारों की तुम ही प्रिये।


वस्त्र कविता का मानस-पटल पे भला-


कल्पना कैसे सीती तुम्हारे बिना??


            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                9919446372


भरत नायक "बाबूजी"

*"कलम, स्याही और आत्मा"*


(कुण्डलिया छंद)


""""""'"'''"'"""""""""""""""""""""""""""""""""


★सर्जन कुछ दूषित हुआ, बदली सर्जक सोच।


आग उगलती थी कलम, आयी उसमें लोच।।


आयी उसमें लोच, स्वार्थ ही अब अहम हुआ।


सूखी स्याही धार, लगे अब तो सृजन जुआ।।


कह नायक करजोरि, अहम लगता धन-अर्जन।


आत्मा का व्यवसाय, बना है अब तो सर्जन।।


 


★आत्मा तृष्णा मेंं फँसी, कलम हुई लाचार।


अान कहाँ पर बेचता, सच्चा रचनाकार।।


सच्चा रचनाकार, करे निज शोणित-स्याही।


करता सृजन सुकर्म, लूटता न वाहवाही।।


कह नायक करजोरि, कपट छल का हो खात्मा।


खोये कलम न अर्थ, शुद्ध निज रखना आत्मा।।


 


★कलम करो कर्मण्य की, प्रेम बहे मसि-धार।


आत्मा से सर्जन करो, सुखी सकल संसार।।


सुखी सकल संसार, रचो कल्याणी रचना।


आडंबर को ओढ़, अहंकारी मत बनना।।


कह नायक करजोरि, श्रेष्ठ शुचि भल भाव भरो।


निहित रहे कल्याण, कलम को कृतकृत्य करो।।


"""""""""""""""""""""""""""""'"""""""""""'""


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


""""''"'"'"""""""""'"''""""""""""""""""""""""""


संजय जैन (मुम्बई

*समय निकल जायेगा*


विधा : कविता


 


दिल से दिल मिलाकर देखो।


जिंदगी की हकीकत को पहचानो।


अपना तुपना करना भूल जाओगे।


और आखिर एक ही पेड़ की छाया के नीचे आओगे।


और अपने आप को तुम तब अपने आप को पहचान पाओगे।।


 


क्योकि छोड़कर नसवार शरीर,


एक दिन सब को जान है।


जो भी कमाया धामाया 


सब यही छोड़ जाना है।


फिर भी भागता रहता है


माया के चक्कर मे।।


 


और न खाता है न पीता है,


और न चैन से जीता है।


खुद तो परेशान रहता है


और घर वाले को भी..।


इसलिए संजय कहता है


की कर ले कुछ अच्छे कर्म।


जिन्हें तेरे साथ अंत मे जाना है।।


 


घुटन की जिंदगी जीने से,


तो अच्छा है आदि खा के जीओ।


एक साथ हिल मिलकर


अपने परिवार में रहो।


जो भाग्य में लिखा है


वो तुझे मेहनत से मिल जाएगा।


पर लालच में स्वर्ग वाला,


समय निकल जायेगा।।


 


जय जिनेंद्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


29/06/2020


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

दिलों ओ दिमाग पे छाई है 


तेरी यादों की परछाई 


नादानियां तेरी शरारते


तेरा शर्माना छुप जाना शर्माई।


दिलों दिमाग पे छाई है 


तेरे यादों की परछाई।।


 


दिल में जज्बे का तूफां


दिमाग में जज्बातों के जंग


तुझे खोने फिर संग लाने की जिद आई।


दिलो ओ दिमाग छाई है 


तेरी यादों की परछआई।।


 


बरसात का मौसम बरसात


में भीगना छोकना बरसात का


पानी कागज की कश्ती बचपन


की कस्मे रस्में कमसिन की


कसम भोली सूरत दिलों की दस्तक छाई।


दिलो ओ दिमाग पे छाई है  


तेरी यादों की परछाई ।।


 


जिंदगी के तक़दीर का वो लम्हा


उसके साथ गुजरे तोहफा लम्हा


तुम्हारा साथ जिंदगी का एहसास


तेरी अक्स जिंदगी की साँसे धड़कन सौगात तू आयी।


दिलो ओ दिमाग में छाई है 


तेरे यादों की परछाई।।


 


गली की कली नाज़ुक


वक्त की नाज़ नज़ाकत


तू लाखों अरमानों की चाहत 


नादानों की मोहब्बत की खुशबू


 नज़ाकत अर्ज आरजू।


दिलों ओ दिमाग छाई है 


तेरे यादों की परछाई।।


 


हुस्न की हद हैसियत तेरी


दीवानगी में दिलो का


पागल हो जाना तेरी मासूम


चाहतों में जीने मरने का कस्मे खाना सिर्फ मेरी ही चाहत में तेरी


जिंदगी का तराना आशिकी।


दिलों ओ दिमाग में छाई है


तेरे यादों की परछाई।।


 


माँ बाप हसरतों की जमीं


दोस्तों की आहों का का बहाना


चाहतों की आसमां


जहाँ में तन्हा तू नाज़ुक हुस्न


की चाँद की चॉदनी।


दिलों दिमाग में छाई है तेरे यादों


की परछाई।।


 


दुनियां की भीड़ में आज भी तन्हा


तेरे संग गुजरे लम्हों की दौलत का कारवां तेरे ही इंतज़ार


की जिंदगी तेरे प्यार की हकीकत


इकरार का इज़हार का लम्हा आती जाती।


दिलों ओ दिमाग में छाई है


तेरे यादो की परछाई।।


 


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


निशा"अतुल्य"

स्तुति 


शिवशंकर


29.6.2020


 


हे शिव शंकर हे अभ्यंकर


तुम कैलाश निवासी हो 


अजर अमर हे अविनाशी


नील कंठ तुम धारी हो ।


 


शिव शंकर हे अभ्यंकर 


तुम कैलाश निवासी हो ।।


 


वाम अंग तेरे गौरा विराजे


नंदी की सवारी हो 


सूत पाया तुमने गणेश सा


जिस पर मैया बलहारी हो ।


 


शिव शंकर हे अभ्यंकर 


तुम कैलाश निवासी हो ।।


 


भूत, प्रेत सँग चले प्रभु


तुम रागी वैरागी हो 


माँ सती ले काँधे पर डोले


प्रेम रस अविरागी हो ।


 


शिव शंकर हे अभ्यंकर 


तुम कैलाश निवासी हो ।।


 


धूनी रमाई श्मशान प्रभु ने


नश्वरता बतलाते हो 


पी कर तुमने हाला को


जग के तुम कल्याणी हो ।


 


शिव शंकर हे अभ्यंकर 


तुम कैलाश निवासी हो ।।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


सत्यप्रकाश पाण्डेय

रजा राज बन गई है..


 


हमारी जिंदगी कांटों का ताज बन गई है


आज बेबसी हमारी मुमताज बन गई है 


 


समझते रहे सुहानी राह जिसे जिंदगी भर


वही समझ मुश्किल भरा काज बन गई है


 


दुःखों की धारा में पतवार समझ बैठे जिसे


वह जीवन नौका ही यमराज बन गई है


 


सत्य उलझन और गरज से भरी है धरती


कैसे टटोलें मन को रजा राज बन गई है।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुरी

😌😌 आशा- उम्मीद 😌😌


 


आशा उनसे प्यार की, 


                     करनी है बेकार।


जो करना है चाहते, 


                    हरदम ही तक़रार।


 


उन लोगों से प्यार की,


                   क्या करनी उम्मीद।


जिनको भाती है नहीं,


                   कभी दिवाली-ईद।


 


आशा सबके ख़ैर की, 


                     करनी है बेकार।


आपस में ही आज सब, 


                     भाॅ॑ज रहे तलवार।


 


आशा मन में ले यही, 


                    बैठी सजनी द्वार।


आते ही साजन मुझे, 


                      देंगे ढेरों प्यार।


 


आशा या उम्मीद से,


                  बने नहीं कुछ काम।


करें नहीं कुछ काम तो, 


                    कैसे होगा नाम।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

पग रज से पावन धरा


मुरलीधर चितचोर


देवलोक फीकों लगे


बृज मोहे मनमोर


 


श्यामा सलोनी सूरत


सुंदर शील सुशील


श्याम संग श्री सोभित


जलधर सह नभ नील


 


युगलछवि मम हृदय बसे


मिले चक्षु आराम


सत्य होंय सब साधना


जग लागे सुखधाम।


 


युगलरूपाय नमो नमः🙏🙏🙏🙏🙏💐💐💐💐💐


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


       *"कभी तो..."*


"कह देते कुछ तो साथी उनको,


यूँही उदास न होते।


चाहत के रंगो को जग में,


यूँही पल-पल न खोते।।


पा लेते जीवन में उनको,


जहाँ जग में तुम होते।


खो कर गरिमा जीवन की फिर,


क्या-यहाँ पल -पल न रोते?


न पाने का दु:ख जग में फिर,


जीवन जग में सह लेते।


सहेज सपने उनके जग में,


कभी तो अपना कहते।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 29-06-2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः....*प्रथम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-7


रावन-राज बढ़ा अघ भारी।


सुर-नर-मुनि सभ भए दुखारी।।


    मातु-पिता कै बड़ अपमाना।


    साधु-संत-सज्जन नहिं माना।।


पर दारा, पर धन जन लोभी।


कुकरम करहिं न मन रह छोभी।।


    राच्छस असुर-राज रह बाढ़ा।


    अधरम-कुकरम-प्रेम प्रगाढ़ा।।


चहुँ दिसि बिलखहिं जे जन सज्जन।


हरषहिं,बेलसहिं जे रह दुर्जन ।।


     धरम-ह्रास अरु सज्जन-नासा।


      अघ बड़ भारहिं मही उदासा।।


परम बिकल अकुलाइ असोका।


गऊ रूप महि गइ सुर-लोका।।


     नैन अश्रु भरि ब्यथा बतावा।


     पर नहिं कछुक सहयता पावा।।


तब सभ मिलि गे ब्रह्मा पासा।


हिय महँ धरे उछाह-उलासा।।


     ब्रह्मा गए समुझि अभिप्राया।


     पर नहिं सके बताइ उपाया।।


कह बिरंचि नहिं कछु बस मोरे।


कटिहइँ कष्ट सकल प्रभु तोरे।।


दोहा-सुनहु धरनि धीरजु धरउ,धरहु मनहिं महँ आस।


        प्रभु जानहिं बिपदा सकल,कटिहइँ रखु बिस्वास।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372 क्रमशः.....


अनिल प्रजापति जख्मी भांडेर दतिया

शीर्षक- मेरा हिंदुस्तान


 विधा -कविता


 


 


 सदियों से ना पीछे हैं ना कभी रहे मेरा हिंदुस्तान


 वीर अभी भी है यहां पर जाने ना देंगे हम शान


 अब आगे जो कदम बढ़ाया कसम हिंदुस्तान की


 चीन चीन कर मारेंगे खैर नहीं अब तेरे जान की


 


 मेरा हिंदुस्तान महान बच्चे बच्चे बोल रहे


हो हिम्मत आन लड़ो जय भारत माता बोल रहे


 


 घर-घर में झांसी की रानी ना कृपाण पुरानी है


 भारत की वीर गाथा तो माहिर जग में जानी है


 


 भगत सिंह सुखदेव राज गली गली में घूम रहे


 भऱी वीरता कूट-कूट कर मस्ती में यह झूम रहे


 


 


                 स्वरचित


 अनिल प्रजापति जख्मी भांडेर दतिया मध्य प्रदेश


हेमन्त सक्सेना - मेरठ भारत 

#रंगभेद #


 


सड़क पर गिरा हुआ वो अश्वेत 


निरीह होकर कराहता रहा 


तड़पता रहा


चिल्लाता रहा 


"मुझे साँस नहीं आ रही" 


 


मग़र... 


अश्वेत रंग पर भारी  


श्वेतरंगी अहंकारी इंसान ने 


अनसुनी कर दीं उसकी चीखें 


जकड़ता गया अपनी टाँगों से 


उस अश्वेत की गर्दन 


जब तक मरा नहीं वो


 


काश वो जानता!!


कि दर्द का कोई रंग नहीं होता 


मौत की कोई नस्ल नहीं होती 


 


और फिर... 


उस निरीह अश्वेत के आँसू 


बहने लगे अनगिनत आँखों से


तब्दील हो गए सैलाब में 


उसकी सिसकियाँ


शंखनाद बनकर


गूंजने लगीं 


हर गली, हर शहर में


उसकी चीखें कोहराम बन गईं 


उसकी साँसें


उफनने लगीं


समुद्री तूफान की तरह 


उसकी मौत 


चक्रवात बनकर करने लगी तांडव 


 


आँखों में सैलाब! 


होंठों पे शंखनाद!! 


साँसों में तूफान लिए 


सड़कों पर छा गया अश्वेत रंग 


एक बार फिर शुरू हो गई 


अपने रंग और नस्ल के अस्तित्व को जिन्दा रखने की लड़ाई 


इस उम्मीद के साथ 


कि मर जाए अबकी बार 


रंगभेद का ये दानव 


हमेशा के लिए


और ये लड़ाई आखिरी साबित हो 


नस्लवाद के ख़िलाफ़ 


 


- हेमन्त सक्सेना - 


  मेरठ 


  भारत 


 


(अमेरिका में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस अफसर के हाथों हुई हत्या की हृदय विदारक घटना से प्रेरित)


सुषमा दीक्षित शुक्ला

तुम ही मेरे सावन थे 


 


 तुम थे बसन्त मेरे तुम ही मेरे सावन थे ।


तुमसे ही हर मौसम था सब कुछ तुम साजन थे ।


 


तुम से ही तो जगमग इस घर की दीवाली थी ।


तुम सँग ही तो खेली वो सांचे रँग की होली थी।


 


वो सुबहें कितनी प्यारी जब थे तुम्हे जगाते ।


पर कभी कभी तो तुम ही चाय बना कर लाते ।


 


वो शामें कितनी प्यारी जब साथ घूमने जाते ।


कभी कभी मोबाइल पर घर के समान लिखाते ।


 


हर छुट्टी वाले दिन हम सबको कहीँ घुमाते ।


खाना, पिक्चर ,शॉपिग तुम जी भर प्यार लुटाते ।


 


हम सब अक्सर साथ साथ मंदिर जाया करते थे ।


जब इक दूजे के खातिर फरियाद किया करते थे ।


 


साथ बैठ कर टी वी जब हम देखा करते थे ।


घर के सारे प्लांनिग जब साथ किया करते थे ।


 


पल पल जब फोन तुम्हारा आता ही रहता था ।


तब हर कोई तुमको दीवाना ही कहता था ।


 


तुम थे बसन्त मेरे तुम ही मेरे सावन थे ।


तुम से ही हर मौसम था ,सब कुछ तुम साजन थे ।


 


         


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार शशि कुशवाहा लखनऊ

शशि कुशवाहा


पति-एड. एच.एस.मौर्या


पिता:-श्री आर.बी.कुशवाहा


माता:-श्रीमती निर्मला कुशवाहा


शिक्षा :-डबल एम ए (इतिहास,शिक्षाशास्त्र) बी एड 


निवास :-लखनऊ,उत्तर प्रदेश


सम्प्रति:-अध्यापिका ( बेसिक शिक्षा विभाग)


कार्यरत :- सीतापुर ,उत्तर प्रदेश


मो.न.-8115469686


ईमेल:- kushwahashashi1180@gmail.com


 


लेखन विधा -कविता,कहानी,लेख ,धारावाहिक कहानियां पसंद विषय( हॉरर और लव)


 


प्रकाशित रचनाएँ :-अदिति एक अनोखी प्रेम कहानी (उपन्यास)


साझा काव्य संकलन :-काव्य चेतना काव्य संग्रह,कालिका साझा काव्य संग्रह,रत्नावली साझा संग्रह


विभिन्न समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन


 


 


सम्मान:-विभिन्न साहित्यिक समूहों और मंचों द्वारा सम्मान पत्र।


 


 


1- "आधुनिकता की आँधी"


 


आधुनिकता की इस चकाचौंध में,


शिष्टाचार के मायने बदलते रहे।


सभ्यता और संस्कृति को छोड़कर,


नैतिकता के पाठ को भूलते रहे।


 


अपनी कमी को छुपा कर,


दूसरो पर दोषारोपण करते रहे।


माँ बाप के दिए संस्कारो को,


आधुनिकता की चादर से ढकते रहे।


 


एक वक्त था बुजुर्गों के पाव छू,


आशीर्वाद लेने को धर्म समझते थे।


आज हाय हेल्लो के चक्कर में,


माँ बाप के दिए संस्कारो को भूलते रहे। 


 


संयुक्त परिवारों में रहकर,


सुख दुःख में साथ निभाते थे।


एकल परिवार की परंपरा में,


आज मूल्यों के मायने बदलते रहे।


 


अपनों की खुशियों में खुश होकर ,


उत्सव सा मिलकर मनाते थे।


आज ऊँचाई पर देख कर उन्हें ही


ईर्ष्या की अग्नि में जलाते रहे।


 


अभी भी वक्त हैं सुधरना होगा,


आधुनिकता की आंधी से बचना होगा।


रिश्तों के सच्चे मायने को समझ कर ,


अपनों को अपनेपन का एहसास कराना होगा।


 


 


 


2 -           "चल मुसाफिर चल"


 


चल मुसाफिर चल,आगे को बढ़ता चल।


मेहनत कर धूप में पसीना बहाता चल।


 


ना थकना हैं और ना रुकना हैं  ,


मंजिल तक पहुँचने को हवा संग बहता चल।


 


राहें हैं लंबी और कठिन डगर हैं ,


भूले भटके जो भी मिले रास्ता दिखाता चल।


 


कदम जो लड़खड़ाये, हौले से संभालना,


विश्वास का दामन थाम आगे को बढ़ता चल।


 


कभी जो फंस जाओ लहरों के भवँर में,


नाम ईश्वर का ले हर बाधा को पार करता चल।


 


हर कदम पर मिलेंगी नयी चुनौतियाँ,


रब का नाम ले हर परीक्षा को पास करता चल।


 


चल मुसाफिर चल,आगे को बढ़ता चल।


मेहनत कर धूप में पसीना बहाता चल।


 


शशि कुशवाहा


लखनऊ,उत्तर प्रदेश


 


 


3 - "  भगवान परशुराम"


 


बैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया हैं बड़ी महान,


6वें अवतार के रूप में धरती पर आये करुणानिधान।


 


पिता जमदग्नि और माता रेणुका के थे पांचवे संतान,


विष्णु जी अवतरित हुए ले अवतार परशुराम भगवान।


 


जन्मे थे ब्राम्हण कुल में युद्ध कौशल में थे वो महान ,


अस्त्र शस्त्र के ज्ञाता और वीरता थी उनकी पहचान ।


 


माता पिता से प्रेम की अदभुत गाथा हैं महान ,


आज्ञा पाकर पिता की ली झटके में माता की जान।


 


ख़ुश ही जमदग्नि ने मांगने को कहा जब वरदान,


चतुराई और विवेक से मांग लिए माँ संग भाइयों के प्राण ।


 


हो गया था शक्ति पर अपनी जब उनको मान,


तोड़ धनुष शिव जी का राम ने चूर किया अभिमान।


 


त्रेता और द्वापर युग में भूमिका निभायी महान ,


अजर अमर हो गए तबसे परशुराम भगवान ।


 


उनके जैसा ना कोई हुआ शक्तिशाली भगवान,


कर्मो से रच गये इतिहास में एक अलग पहचान।


 


शशि कुशवाहा


लखनऊ,उत्तर प्रदेश


 


4 -


 


 


 


  "आओ मिलकर दीप जलाए"


 


फ़ैल रहा हैं विकट अँधियारा ,


मचा हुआ हैं हाहाकार ।


उम्मीद की किरण फैलाये,


आओ मिलकर दीप जलाए।


 


एक दिया किसानों के नाम का,


दे अन्न जिसने जीवन हैं दिया ।


सर्दी ,गर्मी और बारिश में भी,


मुस्कुराकर कर्तव्य का पालन किया।


 


एक दिया गुरुजनों के नाम,


दे ज्ञान अज्ञानता को दूर किया।


प्रेम , सजा और समर्पण से,


सुन्दर भविष्य का निर्माण किया।


 


एक दिया महापुरुषों के नाम,


दे जीवन अपना देश के नाम किया।


अपना सब कुछ न्यौछावर कर ,


स्वतंत्रता का अधिकार दिया।


 


एक दिया शहीदों के नाम,


जिन्होंने घर परिवार सब त्याग दिया।


डटे रहे जो सरहद पर हरदम,


हर ख़ुशी को अपनी कुर्बान किया।


 


एक दिया समर्पित उनको,


कठिन समय में जिन्होंने साथ दिया।


अपनी चिंता और फ़िक्र छोड़ के,


बीमारों की सेवा में जीवन दान किया।


 


एक दिया अपने नाम का ,


जो बैर और वैमनस्य को मिटाए।


प्रेम , सहानुभूति और समर्पण ,


का चारों ओर प्रकाश फैलाये।


 


शशि कुशवाहा


लखनऊ,उत्तर प्रदेश 


 


5 -


आखिर क्यों ? 


 


जन्म तेरे धरा पर लेने पर, 


घर में उदासी सी छा जाती है ।


माँ को छोड़ कर हर ओठो पर


क्यों मनहूसियत सी छाने लगती है?


 


बेफिक्री से चलने पर 


घूर घूर के देखा जाता है ।


ताने कसने को रहता तैयार


क्यों बेशर्मी का तंज कसा जाता है?


 


अतीत की यादों से कभी


मन ख़ुशी से जब नाच जाता है ।


दो पल की ख़ुशी में देख के उसको


क्यों बेपरवाह का ताना लग जाता है ?


 


प्रेम भरे हृदय से जब  


प्रिय को आलिंगन कर जाती है।


इजहार कर समर्पण कर देती है,


क्यों निर्लज्ज उसे समझा जाता है ? 


 


कभी तो अपनी मर्जी से 


सपने को पूरा करने आगे कदम बढ़ाती है।


स्वछंदता का आरोप लगा 


क्यों सारी गलतियाँ शीश पर मढ़ दी जाती है ?


 


घर बाहर दोनों करती है सामंजस्य 


जिम्मेदारियों से कभी नही पीछे हटती हैं।


ना रूकती , ना थकती , ना करती है आराम ,


ऐ औरत फिर भी क्यों गैरो में तौला जाता है ? 


 



 


 


डॉ.राम कुमार झा "निकुंज

दिनांकः २८.०६.२०२०


दिवसः रविवार


विधाः गीत


शीर्षकः 🇮🇳राष्ट्र विजय अनुनाद करें🇮🇳


 


ज्ञान विज्ञानी राष्ट्र मंच पर , 


सारस्वत यश रसधार बहे। 


भारत सेवा भक्ति प्रीति नित


हम संघशक्ति बन सभी चलें।  


 


आपद की इस विकट घड़ी में,


हम भूल स्वार्थ सब साथ चले। 


दिखा रहे अपनी आँखें फिर,


मिल चीन पाक का दमन करें। 


 


अन्तर्मन रख त्याग वतन हम,


नित तन मन जीवन दान करें।


पहचाने हम निज ताकत को,


हम धीर वीर प्रतिमान बने। 


 


गा शौर्य गान सीमा प्रहरी,


हम ध्वजा तिरंगा शान रखें।


बद़जुबान को दें लगाम नित,


हम राष्ट्र हितैषी ध्यान रखें।


 


हम वीर सपूतों की सन्तानें,


क्यों मर्माहत मत वतन करें।


योगदान निर्माण राष्ट्र में,


हम यथाशक्ति अवदान करें। 


 


कठिन परीक्षा कोरोना में,


हम करें सामना एक रहें। 


साथ निभा हम विकट घड़ी में,


सरकार साथ हम अटल रहें। 


 


शौर्य वीर की अमर कथा हम,


काल कपाल हम लिख सकते।


हो प्रहार चाहे भू जल नभ,


बन महाकाल हम लड़ सकते।  


 


साहस धीरज अरिमर्दन में,


हम सैन्यशक्ति विश्वास रखें।


प्रलयंकर बन शत्रु विनाशक,


बलिदानी को हम नमन करें।  


 


प्रश्न उठा क्यों सैन्य शक्ति पर,


क्यों खुद दुश्मन को सबल करें।


दृढ़ संकल्पित सबल प्रशासन,


नित बहुमत का सम्मान करें।  


 


तजें स्वार्थ सत्ता सुख वैभव,


नित संघशक्ति उत्थान करें।


संविधान सम्मत है शासक, 


जन हित निर्णय सहयोग करें।  


 


भड़कायें मत आग वतन में,


समरस सद्भावन भाव रखें। 


भारत माँ जयहिन्द वतन बस,


बस अमर गीत जयगान करें।  


 


जीतेंगे हम अन्तर्बहि संकट,


यदि रहें साथ प्रतिकार करें।


नैतिक पथ मानवता रक्षक,


हम राष्ट्र विजय अनुनाद करें। 


 


डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

*राम बाण🏹*


 


          ऐसा रूप सँवरना उनका।


        दर्पण सम्मुख है इठलाना।।


           दर्पण की निर्मलता मानें।


          दूर दूर तक है झुठलाना।।


 


          क्रीम लगी दीवारें खुद ही।


        मुखड़े की रौनक बता रहीं।।


          इत्र बाग की खुशबू देकर।


       मन बगिया को है लुभा रहीं।


          सपने के झूले हैं सुखमय।


        अपने मन को है बहलाना।।


 


            भ्रम की बेलायें फैंली हैं।


          आशाओं के बादल गहरे।।


         दोष नजर का कौन बताये।


             शंकाओं के लगते पहरे।


     नजरों का बढ चढ़कर हिस्सा।


    कमसिन लगता है झुँझलाना।।


 


           घर में रहकर भूल गये थे।


                  पर्दे में कैसे है रहना।


                बेपर्दे में रहकर जाना।


                चेहरे को ढंकते रहना।


             अंकुश के पर्दे में घायल।


         जख्मों को देकर सहलाना।।


 


             सपनों की है हेरा फेरी।


          ये दुखड़े हैं जज्बातों के।।


           इच्छायें बुनियादी करने।


          चलते खंजर उन्मादों के।।


         राम कहें मन रूप सँवारो।


          जीवन जीना सिखलाना।।


 


      *डॉ रामकुमार चतुर्वेदी*


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः.....*प्रथम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-6


जेहि बिधि जपहु जपहु प्रभु-नामा।


कटिहँइँ कष्ट अवसि श्रीरामा।।


    प्रभु करुनाकर दया-निधाना।


    भगत-आस पुरवहिं भगवाना।।


अबल-सबल जे गुन अरु दोषा।


रहहिं मगन जदि राम-भरोसा।।


     रीझहिं राम प्रेम-सम्माना।


     सबरि-बेर निज कंठ लगाना।।


लंका-राज बिभीषन दीन्हा।


उरहिं लगा सुग्रीवहिं लीन्हा।।


    लइ निज सरन अंगदहि भगवन।


    कीन्ह बालि-इच्छा प्रभु पूरन।।


राम-चरित बड़ अजब-अनोखा।


बुधि जन समुझहिं ग्यान-झरोखा।।


     मूरख समुझि सकहि नहिं लीला।


     समुझहिं केवल प्रभु-गुन- सीला।।


सीय-हरन पछि राम-बियोगा।


लखि गिरिजा भइँ भ्रमित दुजोगा।।


    पुनि सुनि रामहिं चरित-बखाना।।


    अद्भुत प्रभु-महिमा पहिचाना।।


जप-तप-नियम न जग्य सहारा।


कलिजुग बस प्रभु-नाम अधारा।।


दोहा-राम ब्रह्म ब्यापक अलख,परमातम भगवान।


        अस प्रभु जे सुमिरन करै, तासु होय कल्यान।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


संजय जैन (मुंबई

*आचार्यश्री से प्रार्थना*


विद्या : गीत भजन 


 


गुरुदेव प्रार्थना है ,


अज्ञानता मिटा दो।


सच की डगर दिखा,  


 गुरुदेव प्रार्थना है।


ॐ विद्यागुरु शरणम,


ॐ जैन धर्म शरणम।


ॐ अपने अपने गुरु शरणम।।


 


हम है तुम्हारे बालक, 


कोई नहीं हमारा।


मुश्किल पड़ी है जब भी,  


 तुमने दिया सहारा।


चरणों में अपने रख लो,  


 चन्दन हमें बना दो।


गुरुदेव प्रार्थना है ,


अज्ञानता मिटा दो।१।


 


ॐ विद्यागुरु शरणम , 


ॐ जैन धर्म शरणम।


ॐ अपने अपने गुरु शरणम।।


पूजन तेरा गुरवर,


अधिकार मांगते है।


थोड़ा सा हम भी तेरा,


बस प्यार मंगाते है।


मन में हमारे अपनी, 


सच्ची लगन जगा दो।


गुरुदेव प्रार्थना है ,


अज्ञानता मिटा दो।2।


 


ॐ विद्यागुरु शरणम , 


ॐ जैन धर्म शरणम।


ॐ अपने अपने गुरु शरणम।।


अच्छे है या बुरे है,


जैसे भी है तुम्हारे।


मुंकिन नहीं है अब हम,


किसी और को पुकारे।


अपना बन लो हमको,


अपना वचन निभा दो।


गुरुदेव प्रार्थना है ,


अज्ञानता मिटा दो।३।


 


ॐ विद्यागुरु शरणम, 


ॐ जैन धर्म शरणम।


ॐ अपने अपने गुरु शरणम।।


 


आचार्यश्री के 53वे दीक्षा दिवस पर उनके चरणों मे संजय जैन मुम्बई का भजन समर्पित है।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुंबई )


28/06/2020


ऋचा मिश्रा “रोली”

मेरी एक अभिलाषा 


 


देखती हूं जब उन नादान बच्चो को 


तो दर्द भरे दिल से आह निकल आती


काश मैं पूरे कर पॉउ उनके सपने 


मन ही मन यही मैं सोच के अकुलाती


खेलने और खाने की उम्र जब है इनकी


कंधों पर अपने वो भार उठाते है


धूप में वो चलते बिना जूते के पैरों से


 इस कदर उनके नन्हे पैर है जल जाते 


सोचती हूं कि ये बस्ते का भार उठाये 


पर उनके मा बाप बेबसी से बोझ उठवाते


चाहू मै हर पल उन्हें खाना भी ख़िलावू


उनके पास बैठ के ढ़ेर सा बतियावू


उनके सुख उनके दर्द उनका साया बनू


उनके सारे कष्टो को मैं खुद से हरू


समझे वो बात मेरी मैं उनको समझावू


उनको आगे बढ़ाने का जुनून दिल मे लावू


मैं उनके संघर्षो का इम्तेहान बन जाती 


दर्द भरे दिल से यह आह निकल आती


वो जब कभी मागे माँ से पकवान कपडे


सुन कर मा उनकी सजदे में रो देती है 


चुप कराती उनको और मीत मै बन जाती 


खुशी होती गर मै उनके काम कभी आती


 


 स्वरचित ऋचा मिश्रा “रोली”


  श्रावस्ती बलरामपुर 


   उत्तर प्रदेश


भरत नायक "बाबूजी"

*"मैं तो हूँ मजदूर"*


  (सरसी छंद गीत)


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विधान - १६ + ११ = २७ मात्रा प्रतिपद, पदांत Sl, युगल पद तुकांतता।


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*श्रम करता सुख देता सबको, मैं साहस परिपूर।


मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


है सोपान सजाये मैंने, अनगिन भव भरपूर।


मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


 


*थम जाएगी गति इस जग की, कंधे जब दूँ डाल।


हाथ हिला दूँ सृष्टि सजे तब,भाग्य लिखूँ मैं भाल।।


कैद करूँ मैं प्रबल-पवन को, मैं हूँ वह भू-शूर।


मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


 


*पर्वत तोड़ूँ, नदियाँ जोड़ूँ, करता नव निर्माण।


बाँधा मैंने बाँधों को भी, पानी पूरक प्राण।।


एक किया है धरा- गगन को, मैं हूँ क्षितिज सुदूर।


मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


 


*लाली भरता सूरज में जो, मैं ही नवल प्रभात।


बना विश्वकर्मा का संबल, देता हूँ सौगात।।


अन्न-वसन-छत देता सबको, थककर तन कर चूर।


मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


 


*मैं जागूँ जब जग जग जाता, सोऊँ जग सो जात।


वर्षा-गर्मी ओले-शोले, स्वेद बहे मम गात।।


साधूँ दम के दम पर दम को, जोर लगा भरपूर।


मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


 


*किस्मत गढ़ता हूँ नित नव मैं, उन्नति का हूँ राज।


मैंने कुबेर का कोश भरा, पूरण कर हर काज।।


काश! मुझे भी कोई समझे, सुविधा से हर दूर।


मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


 


*बदहवास मैं फिर भी क्यों हूँ, दबंग से दब आज?


टूटे मेरे सपने सारे, हत मेरी आवाज।।


नित-नित नत नम नैन निहारूँ, मैं तो हूँ मजबूर।


मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


 


*प्रगति सकल सह परिवर्तन का, मैं ही शिक्षा सार।


खटता-बँटता-कटता-मिटता, नहीं मिले आधार।।


अपलक राह निहारूँ मैं भी, मन आशा ले पूर।


मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

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       ----रिश्ते ---              


पैदा होता ही इंसान रिश्तों के साथ । नौ माह कोख में रखती तमाम दुःख कष्टों को सहती माँ ।।     


 


अपने औलाद कि खातिर असह वेदना भी जीवन का वरदान मानती खुद चाहे ना पसंद हो संतान की चाहत में सब कुछ करती जीती मारती माँ।।


                              


 


स्नेह सरोवर की निर्मल निर्झर गंगा कि धारा । ममता, ममत्व, वात्सल्य मानव का सृष्टी का का रिश्ता माँ ।।


 


ख़ाबों और खयालो में अपने चाहत अरमानो की जीत, चाहत।


कुल ,खानदान का रौशन चिराग हो माँ का लाडला बेटा।।       


 


आन ,मान, सम्मान का का सत्य सत्यार्थ प्रकाश चिराग माँ का बेटा।                               


साहस, शक्ति ,ज्ञान, योग्यता का अभिमान हो माँ काबेटा दुनियां में माँ बाप खानदान का रोशन नाम करे ,समाज राष्ट्र का नव निर्माण करे ,माँ का बेटा।।


 


काल ,समय ,भाग्य ,भगवान ,कर्म धर्म ,कर्तव्य ,दायित्व बोध का अहंकार बने माँ का बेटा।।    


 


मजबूत इरादों कि बाहों के झूले में झुलाता । अपने सिंघासन जैसे कंधे पर शान से दुनिया को अहंकार से बतलाता देखो ये दुनियां वालों मेरे कंधे पर मेरा नाज़ ।


 


चौथेपन कि मेरी नज़रे लाठी कन्धा फौलाद मेरी औलाद।।


 


मानव का दुनियां में पिता पुत्र का रिश्ता उम्मीदों के आसमान का रिश्ता और फरिश्ता।।               


 


माँ बेटे पिता पुत्र का दुनिया, समाज ,परिवार का बुनियादी रिश्ता।।


 


बहना जीवन का गहना रिश्तों के परिवार समाज खुशियों कि रीत प्रीति का बचपन से जीवन का रिश्ता।।


 


कच्चे धागे का बंधन संग ,साथ बहना चाहे बड़ी हो या छोटी । प्यारी ,लाड़ली ,दुलारी परिवार का प्यार बहना ,दीदी जीवन की सच्चाई का रिश्ता लक्ष्मी ,लाज परिवरिस का प्यार।।           


 


लड़ाई झगड़े कट्टी, मिल्ली बचपन कि शरारत रिश्तो के कुनबे परिवार की खुशियाँ चमन बहार का रिश्ता।।                           


 


हर राखी पर उपहार मांगती दुआओं भैया की झोली भरती। भैया दूज कि मर्यादाओं कि अपनी अस्मत हस्ती कि हिफाजत कि हिम्मत ताकत का आशीर्बाद भी देती का रिश्ता बहना दीदी।।          


 


बचपन की अठखेली आँख मिचौली घड़ी पल प्रहर दिन महीनो साल । वर्तमान से निकल अपने अरमानो के साजन के घर चल देती ।।


 


आँखों में विरह के आंसू दे जाती नन्ही सी पारी नाज़ों की काली परिवार कि चर्चा यादों का दर्पण हो जाती।।


 


भाई से भाई का रिश्ता परस्पर प्रेम प्रधिस्पर्धा साथ- साथ खेलते पढ़ते लिखते बापू के अरमानों के जाबाज परिन्दे खुली नज़रो के खाब बापू के अरमानो के अवनि आकाश। स्वछंद अनरमानो के पंखों के परवाज़ भाई -भाई परस्पर परिवार की साख सम्मान का विश्वास रिश्ता ।।


 


मानव का रिस्तो से नाता ,रिश्ता ही परिवार बनाता परिवारों से सम्माज का नाता समाज का परम्परा रीती,रीवाज निति से रिश्ता नाता ।   


संस्कृति, संस्कार का समाज की पहचान से नाता मानव से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट् का रिश्ता नाता।। मानव, परिवार ,समाज, राष्ट्र कि संस्कृति समबृद्धि पहचान बताता।                          


 


हर एक मानव कि ताकत से संगठित सक्तिशाली परिवार समाज संगठित सक्तिशाली परिवारों के का संबल समाज से मजबूत, महत्व्पूर्ण ,सक्षम राष्ट्र का नाता रिश्ता।।


 


रिश्तों में समरसता ,विश्वास, प्रेम प्रतिष्ठा परिवार का आधार।


    


परस्पर ईमान ,ईमानदार सम्बन्धों के मानव मानवता से ही परिवार का रिश्ता नाता।।                


 


संबंधो में द्वेष ,दम्भ ,घृणा का कोई स्थान नहीं ,द्वेष, दम्भ ,घृणा परिवारों के विघटन के हथियारों से रिश्ता नाता ।                  


 


 


छमा, दया ,करुणा ,प्रेम, सेवा, सत्कार मानव, मानवता के रिश्तों परिवार में प्यार,सम्मान, परम्परा का सार्थक व्यवहार जीवन मूल्यों का रिश्ता नाता।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


एस के कपूर "श्री हंस"

*सुन ले ए चीन। भारत से तू* 


*टकराना नहीं।*


 


हे सुन लो चीन हमसे तुम


टकराना नहीं।


भारत ने बस सीखा है कभी


घबराना नहीं।।


वक़्त आने पर चीन तुझको


औकात बता देंगें।


बस भारत की शौर्य गाथा को


कभी भुलाना नहीं।।


 


हे चीन हम समझ चुके हैं तेरे


हर चक्रव्यूह को।


जान चुके तेरे सब सच झूठऔर 


हर कब कौन क्यों को।।


तेरी हर फरेबी जाहिर हो चुकी


है पूरे जहान में।


दुनिया का हर देश समझ चुका


तेरी हर हाँ ना यूँ को।।


 


मत शामत बुला चीन कि तेरी


जवानी हिला देंगें।


नभ,जल,थल में तेरी रवानी


को ही भुला देंगें।।


अपने पड़ोसियों की जमीन को


हड़पना काम तेरा।


तेरी विस्तार वादी नीति को हम


बीती कहानी बना देंगें।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली*


मोब।। 9897071046


                         8218685464


सत्यप्रकाश पाण्डेय

वतन


 


मेरा वतन है प्रभु तेरे हवाले


हे मनमोहन बांसुरी वाले


 


पाक नेपाल या फिर चाइना


भूटान और यह दुष्ट कोरोना


सब दिल से निकले ये काले


हे मनमोहन बांसुरी वाले


 


धन्य वीर वह सिंहनी जाये


परिवार छोड़ सीमा पै धाये


प्यारे वतन के बन रखवाले


हे मनमोहन बांसुरी वाले


 


सौम्य चमन लगे वतन हमारा


सबके लिए है प्राणों से प्यारा


रक्षक है जिसके मुरली वाले


हे मनमोहन बांसुरी वाले


 


दो मधुसूदन तुम ऐसी शक्ति


हृदय सदन में हो राष्ट्र भक्ति


रहें प्रफुल्लित बन मतवाले


हे मनमोहन बांसुरी वाले।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः🌹🌹🌹🌹🌹🙏🙏🙏🙏🙏


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुरी

😊😊 एक गीतिका 😊😊


 


जो शुभचिंतक होते अपने, 


                       याद वही तो आते हैं।


अपने दिल के कोने में भी, 


                      जगह वही तो पाते हैं।


 


जो शुभचिंतक होते ना वो,


                   दिल में बसा नहीं करते,


कैसे बसें कहो वो दिल में,


                    जो दिन- रात सताते हैं।


 


नेकी कर दरिया में डालो,


                      सुनी कहावत है हमने,


ऐसा जो करते हैं उनके,


                   गुण जग में सब गाते हैं।


 


जो हक़ मार सभी का यारो,


                     झोली भरते हैं अपनी,


अपने रिश्ते-नाते क्या वो,


                    सबसे गाली खाते हैं।


 


मानो हम जो कहते उसको, 


                    बात नहीं ये है झूठी।


जिनका जीवन परहित बीता, 


                    संत वही कहलाते हैं।


 


               ।।‌राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


       *"सवेरा"*


"दीप से दीप जला नेह के,


इतना कर दो उजियारा।


जीवन में फिर साथी कोई,


रहे न नफ़रत का डेरा।।


जीवन पथ पर जग में फिर से,


होगा ऐसा सवेरा।


छाये न कोई गम की बदली,


होगा ख़ुशियों का डेरा।।


इतना त्याग करना जग में,


बना रहे नेह का फेरा।


कैसी-आये गम की बदली,


घेरे न जीवन सवेरा।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःः


        सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःः 28-06-2020


नूतन लाल साहू

ज्ञान की बातें


देरी कर दो क्रोध में तो


क्रोध टल जाता है


खुद ही अपने आग में


क्रोध जल जाता है


सुनो सौ लोगो की बात,पर


दिल की बात तुम मानो


काज सफल उसी का होता है


जिसने खोया नहीं विवेक


देरी कर दो क्रोध में तो


क्रोध टल जाता है


खुद ही अपने आग में


क्रोध जल जाता है


सबसे मूल्यवान है,समय


और शब्दों का अर्थ है सार


जो भी साधा सिर्फ अर्थ को


उनका जीवन हुआ,व्यर्थ


देरी कर दो क्रोध में तो


क्रोध टल जाता है


खुद ही अपने आग में


क्रोध जल जाता है


जो पोथी में लिखा हुआ है


उसे न अपना मान


ढला नहीं, जो कर्म में


वो है कैसा ज्ञान


देरी कर दो क्रोध में तो


क्रोध टल जाता है


खुद ही अपने आग में


क्रोध जल जाता है


बाहर से दोस्त तो बहुतेरे होते हैं


पर भीतर छुरी चलाता है


इकदिन अपने ही छुरी से


खुद ही मर जाता है


देरी कर दो क्रोध में तो


क्रोध टल जाता है


खुद ही अपने आग में


क्रोध जल जाता है


नूतन लाल साहू


रवि रश्मि 'अनुभूति '

 


भूल नहीं सकते हम सब तो , 


          बलिदान सभी वीरों का ।


चलो सभी हम करें सफ़ाया ,  


          सभी ही उन अधीरों का ।।


चीर गई थी सीना गोली , 


          मत भूलो उस गोली को ।


जो कानों में ज़हर घोलती , 


          करो न विस्मृत उस बोली को ।।


 


 लिए तिरंगा आगे आये जो , 


          भून उन्हें भी था डाला ।


उलटे क़दमों थे भागे वे , 


          तभी था मुँह किया काला ।।


आगे तो क़दम बढ़ाना मत , 


          चीख उठीं थीं प्राचीरें । 


ललकार उठे थे सैनिक भी , 


          चलो चलें छाती चीरें ।।


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(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


25.6.2020 , 10:16 एएम पर रचित ।


   मुंबई (महाराष्ट्र ) ।


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🙏🙏समीक्षार्थ व संशोधनार्थ ।🌹🌹


28.6.2020 .


डॉ निर्मला शर्मा

दिल-ओ-दिमाग। ( कविता)


दिल और दिमाग में चलती है कशमकश कोई


जिंदगी आज दिखाती है गुजरा हुआ मंजर कोई


कभी चलते थे राहों पर तो हुजूम साथ चलता था


वीरान हुई सड़कों पर कभी मेला सा लगता था


पर आज है छाई अजब सी बेचारगी सी है


कैसा हुआ मंजर कि चुभन लगती ख़ंजर सी है


न अब शामिल कोई सुख में तो दुख को कौन है बाँटे


सन्नाटा सा पसरा है कि अब सूना सा है पनघट


कहाँ जमघट वो सावन का नहीं झूले हैं पेड़ों पर


कहाँ त्योहार हैं मनते वो अब सपने हैं नींदों में


है अब संसार भी सिमटा सिमटती सी ये दुनिया है


कभी मिलजुल के रहते थे अब बन गई बीच दूरियाँ हैं


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

दिनांकः २८.०६.२०२०


वारः रविवार


विषयः बदरा


विधाः दोहा


छन्दः मात्रिक


शीर्षकः बरसो बदरा झूमकर


उमड़ घुमड़ बादल करे , वृष्टिवधू से प्रीत।


बूंद बूंद अनुपम मिलन , नच मयूर नवगीत।।१।।


नवपरिणय आतुर मिलन,हुआ व्योम घनश्याम। 


मेढक शहनाई बजे , वधू वृष्टि अभिराम।।२।।


सखी बनी हरिता धरा , प्रकृति मातु नवरंग।


मृगद्विज कुटुम्ब चारुतम , अलिकुंज मीत संग।।३।।


विद्युत चहुँदिक गर्जना , रवि शशि तारकवृन्द।


मेघराज गिरि घोटिका , स्वागत सर अरविन्द।।४।।


कर निनाद कलकल सरित् , जलप्रपात मृदुगान। 


वर्षा बन सुन्दर परी , सागर कन्यादान।।5।।


श्वाति समागम चारुतम , सारस युगल प्रसन्न।


नगर नर्तिका बन मयूर , नाच वधू आसन्न।।६।।


सूखी है चारु धरा , शुष्क पड़ा नीलाभ। 


भौतिकता आघात से , भू तापित अरुणाभ।।७।।


कृषक मानस हो मुदित , हरे भरे सर खेत।


पा जमाई बादल सफल , हरियाली हो रेत।।८।।


हो निकुंज अति मुदित बन,हरित ललित वनकुंज।


नीर क्षीर पूरित ज़मी , धनधान्य सुखपूंज।।९।।


बरसो बदरा झूमकर, सूखी धरणी नींव ।


सुनो कृषक सम्वेदना, धरा करो संजीव।।१०।।


रचनाकारः डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नयी दिल्ली


अर्चना द्विवेदी     अयोध्या

छोड़कर पंछी उड़ा पिंजर पुराना


ढूंढने फिर से नया इक़ आशियाना


 


दूर रहकर भी हमेशा पास ही है 


दे गया अनमोल यादों का खज़ाना


 


व्यर्थ हैं सारे ज़खीरे प्यार वाले


गर नहीं मिलता किसी दिल मे ठिकाना


 


टूट जाते हैं शज़र जब आँधियों से


फिर परिंदों को नहीं मिलता ठिकाना


 


जो लिखा तक़दीर में मिटता नहीं


हर अदा में ज़िंदगी हो शायराना


 


मौत की तारीख़ होती है मुक़र्रर


ज़िंदगी ये सोचकर ही आज़माना


 


मोह क्या करना सुनहरी तीलियों से


ये दिखावे का कवच है टूट जाना।


     अर्चना द्विवेदी


    अयोध्या


दयानन्द त्रिपाठी

सुहानी शाम होते ही दलान पे खड़ी होगी,


टहलते ही सही हमारी राह देखती होगी।


 


सुबहे शाम का सपना बड़ा मोहक रहा होगा,


आइना देख के वो हर बार सजती होगी।


 


जब़ मेरा ज़िक्र उसके ख्वाब में हुआ होगा,


आँखों के अश्क सी पिघलती होगी।


 


ख्व़ाब दिल में सजा कर रखा होगा,


तमाम दुआएं फलती - फूलती होंगी।


 


ठंडी हवाओं ने तुझको प्यार किया होगा,


उसमें हमारी यादों की आरज़ू महरती होगी।


 


रचना गीतिका :-


दयानन्द त्रिपाठी


महराजगंज उत्तर प्रदेश।


अविनाश सिंह

*हाइकु:-पिताजी संबंधित*


**********************


 


पिता हमारे


है चाँद और तारे


लगते न्यारे।


 


पिता महान


दे वो जीवन दान


करो सम्मान। 


 


पिता का प्यार


न दिखता हमेशा


है एक जैसा।


 


मुश्किल कार्य


हो जाते है आसान


पिता के साथ।


 


घर की नींव


भोजन का निवाला


जुटाये पिता।


 


पिता का रूप


अदृश्य महक सी


चारों तरफ।


 


पिता दुलारे


करे मार्गप्रशस्त


गुरु समान।


 


पिता की डाँट 


सफलता का राज


रखना ध्यान।


 


घर की शान


रखे सभी का ध्यान


करो सम्मान।


 


*अविनाश सिंह*


*8010017450*


विजय कल्याणी तिवारी बिलासपुर छग

दूर बहुत है लक्ष्य


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दूर बहुत है लक्ष्य परन्तु रूक मत जाना,


रूक जाएं तो बहुत कठिन है उसको पाना ।


 


श्रम से बहे स्वेद की धारा यही ठीक है,


नही काम आता जीवन मे कोई बहाना।


 


बदल वृत्ति को त्याग पाप की छाया को,


नही सरल है इन चीजों का भार उठाना।


 


व्यथा भूख की कभी कहां सह पाया कोई,


अगर हो सके तो भूखे की भूख मिटाना ।


 


जिन रिश्तों पर आशाओं के दीप जले,


छोड़ मनुज उपक्रम से अपने उसे बुझाना।


 


जिनके पांव धरातल पर नही टिके कभी भी,


उसे पड़ेगा समरांगण मे मुहकी खाना ।


 


विजय कल्याणी तिवारी


बिलासपुर छग,अभिव्यक्ति-878


सुषमा दिक्षित शुक्ला

ये मातृ भूमि का वन्दन है 


 


ये मातृभूमि का वंदन है अभिनंदन है । 


हम सब तेरे रखवाले मां,


ये माँ बच्चों का बंधन है।


 ये मातृभूमि का वन्दन है अभिनन्दन है ।


तेरी आन न जाने पाये ,


तुझपे जान लुटा देंगे ।


तेरे चरणों में लाकर के ,


शत्रू शीश झुका देंगे ।


ये मातृभूमि का वन्दन है अभिनंदन है ।


हम सब तेरे रखवाले मां,


 ये मां बच्चों का बंधन है ।


चंदन जैसी तेरी ममता ,


 है रखनी तेरी शान हमें ।


अगर जरूरत पड़ी वक्त पर,


 न्योछावर है प्रान तुम्हें ।


ये मातृभूमि का वन्दन है अभिनंदन है।


 हम सब तेरे रखवाले ,


मां ये मां बच्चों का बंधन है ।


मां तेरा क्रंदन असहनीय ,


ऐ! मातृभूमि तू प्यारी है ।


हम तेरे प्यारे बालक हैं,


 तू हम सब की फुलवारी है ।


ये मातृभूमि का वंदन है अभिनंदन है ।


हम सब तेरे रखवाले मां ,


ये माँ बच्चों का बंधन है ।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार रूणा रश्मि "दीप्त"

रूणा रश्मि "दीप्त"


Runa Rashmi


B.Sc. Chemistry honours


B.Ed.


M.A. Hindi


--अभिरुचि: कविताएं, लघुकथा और आलेख लेखन (हिन्दी एवं मैथिली)


-- महिला काव्य मंच की सक्रिय सदस्य।


-- विभिन्न आनलाइन काव्य प्रतियोगिताओं में सक्रिय सहभागिता एवं श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में निरंतर सम्मानित।


-- विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में रचनाएं प्रकाशित


-- दो साझा काव्य संग्रह प्रकाशित


--दो एकल काव्य संकलन प्रकाशित


-- दो साझा काव्य संग्रह प्रकाशनाधीन


--सम्मान :


1. आगमन काव्योत्सव एवं सम्मान समारोह


2. आगमन स्थापना दिवस एवं सम्मान समारोह


3. प्राइड आफ वीमेन अवार्ड, 2019


 


runa.rashmi@gmail.com


 


M.no. 9931190744


*********


1.तांटक छंद


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मुरलीधर कान्हा


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आओ कान्हा मुरली लेकर, संग तुम्हारे मैं झूमूँ,


संग गोपियों राधा बनके, वृंदावन में मैं घूमूँ।


 


धुन में तेरी डूबूँ ऐसे, सुध बुध अपनी मैं भूलूँ,


बावरिया सी गीत सुनाऊँ,वन वन मीरा सी डोलूँ।


 


गिरिवरधारी, कृष्णमुरारी,गोकुल के तुम ग्वाले हो,


नंद दुलारे, मुरलीवाले, मन के तुम मतवाले हो।


 


मात यशोदा के तुम लाला, माखन खूब चुराते हो,


झूठी मूठी कसमें खाते, फिर भी मन को भाते हो।


 


ग्वालबाल सब संगी साथी,गोपिन को भी प्यारे हो,


राधा रानी को तुम भाते, जग में सबसे न्यारे हो।


 


पापी और अधर्मी के तो, तुम बनते संहारक हो,


धर्म डगर पर चलने वालों,के तुम बनते तारक हो।


                                       ©️®️


                                 रूणा रश्मि "दीप्त"


                                   राँची , झारखंड


 


 


2.दोहे


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बेबस मजदूर


**********


बंद हो गए काम सब, बैठे सब मजदूर।


हैं अपनों से दूर ये, मिलने से मजबूर।।


 


पैदल ही सब चल पड़े, वाहन मिला न कोय।


 देख लिया है दूर तक, साधन दिखा न कोय।।


 


इन बेबस लाचार पर, पड़ी वक्त की मार।


फैलाओ नहि संक्रमण, कहती है सरकार।।


 


जाना संभव है नहीं, वापस अपने प्रान्त।


जाने कब होगा यहाँ, बंदी का अब अन्त।।


 


भोजन बिन कैसे रहें, हम लाचार गरीब।


किंतु कमाने का नहीं, सूझे कुछ तरकीब।।


 


जीवन कटता आस पर, हैं जो दानी लोग।


कृपा करें वे लोग तब, मिलता भोजन भोग।।


 


संकट के इस काल में, पता चला है आज।


मानवता इंसानियत, से है भरा समाज।।


                          ©️®️


                       रूणा रश्मि "दीप्त"


                        राँची , झारखंड


 


 


 


 


3. छंदमुक्त कविता


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अमन


*****


अमन की बात करते हैं,


लिए तलवार हाथों में।


कहो अब शांति हो कैसे,


है जब अंगार बातों में।


 


दिखे बस स्वार्थ ही अपना,


वतन की फिक्र ना कोई।


करें दुष्कर्म ये ऐसे,


कि माता भारती रोई।


 


करें जाग्रत इन्हें मिलकर,


चेतना शून्य है इनकी।


सिखा दें राह जीने की,


बढ़े सौहार्द्रता जग की।


 


प्रेम की लौ जले दिल में,


बुझे नफरत की चिनगारी।


बढ़ा दें नेह हर दिल में


बनें ये भाव उद्गारी।


 


अमन होगा तभी जग में,


सुकूं औ चैन पाएंगे।


बढ़ेगा भाइचारा भी,


गीत उल्फत के गाएंगे।


                     ©️®️


                 रूणा रश्मि "दीप्त"


                   राँची , झारखंड


 


4. छंदमुक्त कविता


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गीत, गजल और कविता


******************


व्यक्त हो जब भाव लय में, गीत होता है वही।


काफिया रदीफ के संग, गजल बनता है सही।


 


शब्द संयोजन उचित हो, और सुंदर हो चयन।


और फिर अभिव्यक्ति करते, हम सदा ही कर मनन।


 


शब्द लड़ियों में पिरोकर, गीतमाला गूँथते।


गीत कह लो या गजल ये, मन सभी का मोहते।


 


दर्द-ए-दिल हो बयां या, दास्तां उल्फत भरी।


गीत-गजलों में सदा ही, बात सबने है कही।


 


जोश है भरना दिलों में, या दिखानी भक्ति है।


भाव कविता से जगा दें, यही इसकी शक्ति है।


 


संग ले अहसास अपने, आ गए हम भी यहाँ।


भाव शब्दों संग मिलकर, गीत बनते हैं जहाँ।


                             ©️®️


                         रूणा रश्मि "दीप्त"


                          राँची , झारखंड


 


5. छंदमुक्त कविता


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मेरे प्रियवर


**********


तुम हो मेरे चंदा प्रियवर


और मैं तेरी चाँदनी।


हर धड़कन का राग तुम्हीं हो,


मैं हूँ तेरी रागिनी।


 


जीवन में संगीत तुम्हीं से,


तुमसे ही हैं गीत मेरे।


मेरे गीतों के बोलों में,


बसते हो मनमीत मेरे।


 


सुदृढ़ तरुवर हो तुम गर तो,


मैं हूँ शाखा मतवाली।


कोमल नन्हीं दूब अगर मैं,


तुमसे मेरी हरियाली।


 


तुम सुरभित हो पुष्प अगर तो


मैं मँडराती तितली हूँ।


इन्हीं सुवासित वायु के संग,


ढ़ूँढने तुमको निकली हूँ।


 


मेरे मन का दीपक हो तुम,


मैं दीपक की बाती हूँ।


अँधियारी काली रातों के,


तुम ही हो मेरे जुगनू।


 


मिलन हमारा ऐसे जैसे


सागर से नदियाँ मिलतीं,


जुदा न होंगे एक दूजे से,


हर धड़कन बस ये कहती।


                         ©️®️


                 


                    राँची , झारखंड


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार अनिता मंदिलवार सपना

अनिता मंदिलवार 'सपना'


जन्म व जन्मस्थान~ 04 फरवरी


बिहार शरीफ, जिला नालन्दा 


*शिक्षा ~- स्नातकोत्तर (वनस्पति शास्त्र, हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य , पीजीडीसीए, बी•एड), 


विशेष- वाणी सर्टिफिकेट 


*संप्रति* ~ व्याख्याता जीवविज्ञान 


शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय असोला, अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़


*लेखन विधा* ~गद्य एव पद्य (कविता, ग़ज़ल, नाटक, रूपक, लेख, कहानी, लघुकथा, हाइकु, तांका, चोका)


 


*प्रकाशित पुस्तकें* ~सृजन समीक्षा, जीवन के रंग-दोहों के संग, सपनों की उड़ान, सच का दीपक, बसंत तुम आए क्यों, काव्यमेध, सपना की काव्यांजलि, स्वप्न सिंदूरी 


 


संपादन-


1. अतिथि संपादक-गुलमोहर काव्य संग्रह 


2. सह संपादक- ये दोहे बोलते हैं


3. संपादक- कुण्डलियाँ यूँ बोलती हैं 


4. संपादक -अमलताश - काव्य संग्रह 


5. संपादक- प्यार का जन्म- कहानी संग्रह 


 


*प्राप्त सम्मान* ~छत्तीसगढ़ रत्न सम्मान 2019, नेशनल एक्सीलेंस अवार्ड, इन्टरनेशनल आइकन अवार्ड 2020 वुमन आवाज अवार्ड 2018लक्ष्मीबाई मेमोरियल अवार्ड 2019 के साथ लगभग 300 सम्मान 


 


*संपर्क सूत्र* ~98265 19494


ईमेल- anita.mandilwarr1@gmail.com 


 


 


रचनाएँ-


 


1.मनहरण घनाक्षरी 


 


श्याम रंग रंगा आस,


सतरंगी मधुमास,


सुगंध पुष्प सुवास,


गीत कोई गाइए ।


 


आज यहाँ मरूथल,


हुआ देखो जल-थल,


बह रहा कलकल,


मेघ बन जाइए ।


 


बाँध गया मन मेरा, 


मोह नहीं छूटा तेरा,


गली गली करे फेरा,


प्रीत छलकाइए ।


 


झूम झूम गाये रहे,


नाचे इठलाय कहे ,


जीवन उमंग बहे,


रंग बरसाइए । 


 


 


2. प्यासा पंछी


 


आए पावस जो 


रस बूंद लिए 


चातक को मिला


जीवन दान 


जीने के लिए


कोयल के 


मधुर गान


कण-कण में 


संचार लिए


दूब हँसे, 


फूल खिले


प्यासे पंछी को 


नीर मिले


उड़ता फिरे 


जाने कहाँ 


सताये पीड़ा 


अंतर्मन की


शाखों से टूटे, 


पीले पत्ते 


वैसा ही है हाल मेरा


टूटी अभिलाषा, 


घोर निराशा


सपना बिखरा, 


दीपक बुझे ।


 


नवगीत


 


अंदर भरे हैं हलाहल


अवसादों के पार हुई ।


अश्रु आचमन करते रहते


अंतर्मन तार तार हुई ।।


 


तन मन एक नदी जैसे


उतर रही धीरे धीरे धीरे 


प्राण बसती धमनियों में 


डूब रही तीरे तीरे


फूल बन गए सख्त पत्थर 


मानवता की हार हुई ।


 


दिवस आये हैं कराहते


कलप रहा देखो तन मन


याद आये अब न कोई


जल रहे जैसे भू अगन


सुख दुख अब आँखमिचौली 


बीते दिन अब चार हुई ।


 


पैरों की पायल चुप है


जंजीरें बोल रही है


जीवन का भरोसा पाकर 


बंद द्वार अब खोल रही है


खिले जो मुस्कान अधर पर


स्वप्न सभी साकार हुई ।


 


अंदर भरे•••


अवसादों के•••••


 


 


अनिता मंदिलवार सपना


 


4.नवगीत


 


अश्रु बन भावनाएँ टूटे


शब्द करे दावा


उर पीड़ा बाहर फूटे


बहती बन लावा ।


 


शब्द कैसे हों खामोश


ह्रदय अनुभूतियाँ भर कर


शताब्दियों के प्रवाह से


जीवन धारा से लड़कर 


 


अस्थियाँ भी देह से छूटे


संसार छलावा 


उर पीड़ा बाहर फूटे


बहती बन लावा ।


 


खुशियों का मेला लगता


उसे हम कभी कह न सके


दुख की बस सौगात मिली 


उसे हम यहाँ सह न सके


 


समय यहाँ हाथ से छूटे


क्यों अब पछतावा 


उर पीड़ा बाहर फूटे


बहती बन लावा ।


 


शब्द पत्थर पर बह घिसे


देखो लहू गीत गाते हैं 


याद रहा निर्मोही पल


होंठ सिल जहाँ जातें हैं 


 


सत्य यही बाकी सब झूठे


क्यों यहाँ दिखावा 


उर पीड़ा बाहर फूटे


बहती बन लावा ।


 


क्षितिज भी शून्य देख रहा


अंबर तिमिर वरण सा है


संसार का ऐसा कोना


अब तक नहीं किरण सा है


 


मरीचिका बन "सपना" टूटे


रिश्तों का धावा 


उर की पीड़ा बाहर फूटे


बहती बन लावा ।


 


5. मीत मेरे बन जाते तुम तो


गीत मेरी तब पूरी होती ।


 


सागर सी गहरी प्रीति यहाँ 


तेरे प्रीति में गाती रहूँ 


यादें तेरी लिपट बेल सी


नवगीत मैं भी पाती रहूँ 


गीत मेरे सुन पाते तुम जो


प्रीत मेरी तब पूरी होती ।


 


आज कितना विवश हूँ मैं 


पंख मिलते जो उड़ती रहूँ 


नैना मेरे जो सजल हुए 


राहों पलकें बिछाती रहूँ 


रीत सिखलाते प्रीतम तुम जो


जीत मेरी तब पूरी होती ।


 


अधरों पर जीवन का अमृत


एक तुम्हारा रूप नयन में 


मिलते हार या जीत "सपना"


आप ही बस मेरे चयन में 


मन के मीत नहीं मिलते तो


बिन तुम दिवस अधूरी होती ।


 



व्याख्याता (जीवविज्ञान)


अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सुश्री उषा लाल

कवयित्री 


पिता का नाम-श्री चन्द्र प्रकाश 


माता का नाम-श्रीमती शान्ती देवी 


पति का नाम- श्री अनिल लाल


स्थायी पता - 8/3बैंक रोड


                   विश्व विद्यालय परिसर


                    इलाहाबाद ,


                    211002.


जन्म स्थान - फ़ैज़ाबाद , उत्तर प्रदेश


मोबाइल नम्बर- 9451057829


शिक्षा - एम.एससी.(जन्तु विज्ञान) बी.एड


व्यवसाय- पाठन


प्रकाशित रचनायें - २ काव्य संकलन


 


(१) है कौन चिरंजीवी 


 


मैंने जीवन से पूछा जब


पल बचे शेष कितने मेरे ? 


उसने उल्टा यह प्रश्न किया


जो मिले तुम्हें वह कहाँ गये ?


 


मैं डूबी असमंजस में यह 


लेखा जोखा करने बैठी 


कुछ समझ नहीं पायी लेकिन 


ये पूँजी कहाँ गवाँ बैठी !!


 


कुछ दे मुस्कान ख़रीदी थी


कुछ देकर आँसू लायी थी 


कुछ बिना मोल ही व्यर्थ गये 


कुछ गिरवी मैं रख आयी थी !


 


कैसे हाथों से फिसल सभी


मुझको रीता करते आये


अब लगा शेष वह राशि हुयी


जिसको अथाह कहते आये !


 


मैंने फिर कहा ,"सुनो !मुझको


कुछ पल तुम और अभी दे दो"


हँस कर बोला जीवन मुझसे


"जो पास तेरे उनको जी लो।"


 


"कुछ पल देकर मुस्कान एक


रोते अधरों पर फैला दो


कुछ दे कर ,बोझ किसी काँधे 


का अपने ऊपर ला देखो !


 


 है कौन यहाँ पर चिरंजीव 


सब के पल चुकते जाते हैं


हर पल ख़ुद पर न्योछावर कर


हम जीवन व्यर्थ गँवाते हैं !!


 


             (२) कलम का विद्रोह 


 


आज क़लम विद्रोह कर उठी


बोली तुम झूठा लिखती हो !


किस युग की बातें करती हो


सच पर क्यूँ परदा ढकती हो ! 


 


देखो दुनिया बदल रही है


प्रेम - राग सब मिथ्या ही है


भाई चारा कहीं खो गया 


नातों की बुनियाद हिली है !


 


याद नहीं किस युग की गाथा


जब 'रसखान', 'श्याम' रंग रंगे,


'अकबर' के प्रासाद कक्ष में


होते 'कृष्ण जन्म' के जलसे!


 


नामों से 'पहचान' जान कर


क्यूँ बन जाते हैं अंगारे ?


कब हिन्दू या मुस्लिम बन गये


इक 'आदम' के वंशज सारे !


 


कैसा यह उन्माद बढ़ रहा


कौन इसे है यूँ भड़काता?


छूने भर से धर्म भ्रष्ट हो 


कैसा है कच्चा यह नाता ? 


 


हो क़ुरान , गीता या बाइबिल 


नहीं किसी की सीख घृणा है


हर मज़हब का एक सूत्र है


मानवता का धर्म बड़ा है !


 


बस कर दो !अब बस भी कर दो!


मज़हब को मत शस्त्र बनाओ,


जात- धर्म का तमग़ा फेंको 


"होमों सेपियन " ही कहलाओ”!!


 


            (३)गरिमा लौटानी होगी


 


द्वार बन्द कर , चक्षु मूँद कर,


   चिन्तन से क्या होगा!


बाहर आकर तुम्हें बहुत


   परिवर्तन करना होगा!!


 


गति है जिसमें उसको बस


   एक राह दिखानी होगी ,


स्थिर है जो उसमें


   नयी ऊर्जा लानी होगी!


 


जिस जीवन की मात्र कल्पना


    तुम्हें कँपा जाती है


कितनी कलियाँ नित्य वहीं


    बिन विकसे मुरझाती हैं!


 


रोता और सिसकता बचपन


    है कलंक हम सब पर


बढ़कर उन सब अधरों पर


   मुस्कान खिलानी होगी!


 


  अरे स्वयम् को रहे संजोते


     हैं मनुष्य हम कैसे?


  मानवता को एक


      नई पहचान दिलानी होगी!


 


 देश ,जाति और रंग भेद से


     ऊपर उठ कर देखो


जीवित रहने की गरिमा 


    जंग में फैलानी होगी!


 


कुत्सित कर डाला है हमने


    भू तल को इस जग को


इसकी खोई सुन्दरता 


      हमको लौटानी होगी!!


 


            (४) हर रोज़ नयी मंज़िल मिलती


 


रोज़ - रोज़ की भाग दौड़ में 


सदा यही कोशिश रहती है,


किस - किस से आगे हो जाऊँ 


तलब यही हर पल उठती है !


 


थी दृष्टि उन्हीं पर गड़ी रही


जो मुझसे आगे निकल गये


बस कैसे उन्हें पछाड़ सकूँ 


दिन इसी जुगत में शेष हुए!


 


रुक कर इक पल पीछे देखा


थे कितने बन्धन टूट गये


मैं होड़ लगा भागता रहा


और दृश्य मनोरम छूट गये !


 


फिर सोचा सब का साथ रहे


थी नहीं मेरी क़िस्मत ऐसी


पर " अन्तर्मन " से विलग हुआ


प्रभु ! ये विडम्बना है कैसी ?


 


कितनी कोमल अभिलाषायें


मेरे अन्तर में सिसक रहीं


हैं कितनी मधुरिम इच्छायें


जो बन्द द्वार में सिमट गयीं!


 


अब रुको ठहरते हैं कुछ पल 


हम किसी घनेरे वृक्ष तले


स्मृतियों के कुछ पृष्ठ पलट


मन को थोड़ा हर्षित कर लें!


 


कुछ गति भी कम करनी होगी


है कहाँ पहुँचने की जल्दी?


हर इक पल में ही 'जीवन' है


हर मोड़ नयी मंज़िल मिलती !!


 


                    (५)जीवन का लेखा चित्र


 


जीवन का लेखाचित्र खींच


मैं ठिठक गयी यह सोच तनिक


कि बैठ कभी कुछ छाँव देख


खुद से दो बातें थी करनी !


 


था वक़्त कहाँ तब पास मेरे


जब थम कर यह मन में कहती


कि कुछ पल रुक कर सुस्ता लो


है आगे मुश्किल राह बड़ी !


 


इस आशा से मन पुलकित था


ठहराव कभी पा जाऊँगी 


न सोच सकी, बचपन यौवन की


गलियाँ फिर न पाऊँगी!


 


एक जाल था वह - रेशम का सा


जो रहा जकड़ता दिन प्रतिदिन 


जिसमें जो भी एक बार फँसा 


वह चक्रव्यूह में जाता घिर !


 


वह लोभ मोह माया ममता 


कि अगणित गाँठें नित बंधती 


था नहीं सहज रहना बच कर


फिर मैं पापी कैसे बचती


 


मन में मेरे यह भाव उठे 


है सदा शीर्ष पर कौन टिका 


ऊपर -नीचे जो लहर चले 


वह ही लक्षण है जीवन का !


 


यह काल चक्र चलता रहता


हैं कितने ही आते जाते 


चल देंगे हम सब हाथ झाड़ 


पूरी कर के अपनी साँसें!


 


 


 


 


सुषमा दिक्षित शुक्ला

नटखट बचपन


 


अक्सर मुझको नटखट बचपन,


 याद बहुत आता है ।


 


माता का अनुपम दुलार ,


जो रोते हुए हंसाता है ।


 


कितना गहरा प्यार पिता का,


 जिसकी कोई माप नहीं थी ।


 


हम सब पर न्योछावर थे वह,


 अपनी तो परवाह नहीं थी ।


 


सखी सहेली वह बचपन की,


 जिनके साथ खेलते थे ।


 


भाई बहनों का संग खाना,


 साथ-साथ जब सोते थे ।


 


वह सावन के झूले सुंदर ,


वह बचपन की प्यारी होली।


 


 लुक्का छिप्पी, गुड्डा गुड़िया, 


जो थी सखियों संग खेली ।


 


बाग बगीचे पंछी नदिया ,


याद अभी भी आते हैं।


 


 वो टेढ़े मेंढे गांव के रस्ते,


 मन में घर पहुंच आते हैं ।


 


वह अतीत की सारी यादें ,


हैं मस्तिष्क पटल पर रहती ।


 


जब मन करता उन यादों में,


 जाकर हूं उड़ती फिरती ।


 


नए जन्म में फिर से वह सब ,


क्या मुझको मिल पाएगा ?


 


भोला भाला नटखट बचपन ,


लौट कभी क्या आएगा ?


 


अक्सर मुझको नटखट बचपन,


 याद बहुत आता है।


 


 माता का वह अनुपम दुलार ,


जो रोते हुए हंसाता है


 


सुषमा दिक्षित शुक्ला


सुषमा दिक्षित शुक्ला

मानवता का मर्म समझ लो


 


 


 मानव धर्म समान जगत में ,


कोई धर्म नहीं है ।


 


मानव सेवा से बढ़कर ,


तो कोई कर्म नहीं है ।


 


मानवता का मर्म समझ लो ,


यही धर्म की परिभाषा ।


 


करो सार्थक इस जीवन को,


 यही प्रभु की अभिलाषा ।


 


बड़े भाग्य मनुजत्व मिला है,


 इसको व्यर्थ गंवाना ना ।


 


पावन कर्म करो हे! मितवा,


 जीवन को भटकाना ना ।


 


 यही कर्म है यही धर्म है ,


यह ही कर्तव्य तुम्हारा है ।


 


मानवता के पावन पथ पर ,


ही गंतव्य तुम्हारा है ।


 


मानवता का सेवक ही तो,


 प्रभु सेवा का भागी है ।


 


यही मर्म जो समझ सका है ,


वह प्रभु का अनुरागी है ।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार हास्य कवि विशेष शर्मा


शिक्षक एवं कवि


पता ग्राम बेलवा बजरिया नकहा लखीमपुर


शिक्षा स्नातक बीएड बीटीसी टीईटी पांच बार


सेवा प्राथमिक विद्यालय सिसौरा फूलबेहड खीरी


शौक काव्य सृजन काव्यपाठ


बच्चों को शिक्षित करना


उपलब्धि उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विभिन्न काव्य मंचों पर काव्यपाठ एवं शताधिक सम्मान एवं पुरुस्कार।


विधा अवधी एवं खडी बोली मे हास्य व्यंग्य।


कृति *वटवृक्ष*


स्वरदूत 9839737993


8887628508


 


मेरी कुछ कविताएं


 


खेतन खरिहानन औ बागन बगीचन मा


देखेन तौ याक बात भाइ गई मन ते।


गांव केर गोरी ई छोरी चकोरी का


कैसेउ पटाइ लियो कौनेउ जतन ते।


हम सा लफंटू वा बिना ढूंढे पाइ गई


खूबइ अघाइ का निचोरि लीसि धन ते।


जहां गई ब्याही वा हुंऔ तौ रही नाइ


खाइसि पीसि हमसे औ चली गई अन्ते।।


 


😁😁😁😁😁😁😁


 


 


राम लाल जोखे पैरु डगरु मुरारीलाल


मर्री छोटकन्नी मुन्नी और नाउ मीना है।


दुइ केर नाउ साहब जौन चहौ लिखि लियौ


नामकरण इनका भवा अबही ना है।


हम कहा ई सब का तुमरेन औलादें है


मुसकाइ बोली सब भगवानै दीना है


बरहें का पेट महिंया देखतै बौराइ गेन


हाय राम यू कौन श्रमिक का पसीना है।।


😁😁😁😁😁😁😁


सुखीराम कहै लागि सुनौ भइया दुखीराम


चिंतन की बातै कछू आई है ध्यान मा।


बात या बताओ का मौत सबकी निश्चित है


दुखीराम बोले यू तौ तय है विधान मा।


सुनतै यू सुखीराम के सुर सुखाइ गए


बोले यहै चिंता है बसी आठौ याम मा


मरत मरत सबसे बाद मरी जौन मनई


ऊका फूकै या गाडै को लइ जाई श्मशान मा


 


😁😁😁😁😁😁


 


सुखीराम जी की घरवाली हेराइ गई


चारिउ वार ढूढै लाग पूरे जी जान से।


राह महिया मंदिर देखना श्री राम जी का


रोइ रोइ विपदा सुनाइन भगवान से।


श्री राम बोले बीबी हमरिउ हेरान रही


वनवास दौर महिया जंगल सुनसान से।


ताकी खोज कीन रहै पवनपुत्र बजरंगी


पास ही मा मंदिर है मिलौ हनुमान से।।


 


😁😁😁😁😁😁


झोरिया मा कुर्ता कै लाठी मा टांग लीन


जूता बडकन्ना कै पहिरि लीन पांव मा।


कोई से सलाम ठोंक रोक रोक राम राम


यहै करत आइ गए पाडे के गांव मा।


द्वार याक पहुंचे यक बूढ़ा भिखारी जानि


भीख लाईं सुखीराम आइ गए ताव मा।


बोले या भीख नाइ हमका सब वोट दियौ


ठाढै हन अबकी प्रधानी के चुनाव मा।।


 


 


✍️ विशेष शर्मा


 


😁😁😁🙏🙏🙏


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सौदामिनी खरे "दामिनी"


पति- स्व0अशोक खरे


जन्म - 25 अगस्त 


स्थान - रायसेन मध्यप्रदेश 


शिक्षा-स्नातक ( हिन्दी, )


विधा - गद्य, पद्य लेखन


लघुकथा,कविता,नवगीत,


समसामयिक ,निबंध, सवैया भजन,दोहा ,गजल,इत्यादि।


प्रकाशन - साझा संकलन पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशन ( प्रणाम पर्यटन, साहित्य समीर,सरिता संवाद,मेरी संगिनी, कर्मनिष्ठा,शब्दलोक इत्यादि पूर्वांचल प्रहरी समाचार पत्र )


 सम्मान पत्रःविभिन्न वाटसप साहित्यिक मंच द्वारा ।


 


व्यवसाय - अध्यापन


पता -  अशोक नगर कालोनी बार्ड नम्बर-13म0न026


थाना- रायसेन 


मध्यप्रदेश 


मो0 9753152005


ईमेल saudamini50@gmail.com


(सौदामिनी खरे "दामिनी")


 


 


गीतिका


212 212 212 212


*ख्वाब कितने ही उसने दिखाये मुझे,*


बात वो जमाने की बताये मुझे।


 


हर घड़ी साथ मैं तो रहूँ मोहना,


आपसे दूर रहना सजाये मुझे।


 


रात की चाँदनी देख आसमां में सजी,


रास मधुवन में कोई दिखाये मुझे।


 


पूछ तो समा सुन्दर है क्यों यहाँ, 


गीत मुरली के तूने सुनाये मुझे।


 


नाव मझधार में लहराय है मेरी,


राह देखू आके तू बचाये मुझे।


 


 


स्वरचित मौलिक रचना के साथ सौदामिनी खरे "दामिनी" रायसेन मध्यप्रदेश।


 


कविता:-


 


दिन रात देता पहरा वो सीमा का सिपाही।


वतन पे जा लुटाता वो सीमा का सिपाही ।


होली हो दिवाली, राखी हो या बैशाखी।


ईद पर भी देता पहरा वो सीमा का सिपाही।


शीत हो शिशिर हो ठिठुरने से भरे दिन हो।


बर्फीली सरजमीं पर वो सीमा का सिपाही ।


झाडियों की चुभन हो काँटो की जमी हो।


दलदल में भी लड़ता वो सीमा का सिपाही।


बादलों से हो बरसा बिजलियां कौंधती हो।


तूफानों से भी लड़ता वो सीमा का सिपाही ।


आँधी हो या लू हो जला देने वाली उमस हो।


शोलो से खेलता है वो सीमा का सिपाही ।


आपदा हो या महामारी चाहे दंगा फसाद हो।


खड़ा दुश्मन के सीने पे सीमा का सिपाही।


अपने हो पराये या सगे सम्बन्धी भाई हो


सब से रिश्ता जोड़े वो सीमा का सिपाही ।


जय हिंद जय भारत, वंदे मातरम् गान हो।


तिरंगे पे जा लुटाता वो सीमा का सिपाही ।


 


स्वरचित मौलिक रचना के साथ सौदामिनी खरे "दामिनी "खरे रायसेन मध्यप्रदेश।


 


 


गीतः-


 


 


कान्हा देते हो क्यो अपनी सफाई।


आज पकडे गये हो कन्हाई ।


मेरी दही की गघर फोड़ डाली। 


मै निकली थी मथुरा नगरिया।


सर पे लेकर दध की गगरिया ।


आज पकड़े गये हो कन्हाई-------


नंद भवन मे लगी है अदालत ।


राधा रानी ने की है वकालत।


जज बनी आज देखो नंदरानी।


टूटी मटकी का मोल चुकायी।


आज पकड़े गये हैं कन्हाई ------'


सारी सखियां बनीआज दुश्मन ।


मेरे लाला की करती शिकायत।


सारे जग मे नही कोई तुझसा।


मेरा प्यारा सलौना कन्हाई-------


आँसू आंखो में भर भर के रोई।


नजर तुझको न लगे लाल कोई।


पूरे जग निराला है मोहन।


तेरी राधा से करूँगी सगाई-------


नंद बाबा सुनो आज मेरी ।


मेरे लाला की सूरत है भोली।


नही दहिया की लाला निहोरी।


तेरे लिए घणी माखन बनाई-------


श्याम सुन्दर की शोभा निराली।


गल बैजंती माला सुहाती।


नील वदन रंग राती।


उस पर मोर पंखी लगाई--------।


 


स्वरचित मौलिक रचना के साथ सौदामिनी खरे "दामिनी" रायसेन पर 


 


सवैया


 


 


उठो राम लल्ला जगा रही तोरी मैया ।


लड्डू , पेडा माखन, मिश्री खाओ और मलैया।


भोर भयो सूरज उग आयो आई लाल किरण परछैया।


दशरथ नंदन मुख चूम रही कौशल्या लेय बलैया।


सुन्दर साँवरे मेरो लल्ला मेरी नैन तरैया।


भरत लखन शत्रु शूधन के बडे भैया।


अयोध्या के राजकुअंर है सारे जग के राम रमैया।


हृदय पुलक हुलसी कौशल्या भोर जगायो उठो राम बड भैया


या छवि ब्रम्हा विरंची निहारें होन लगे सुमन वृष्टि बरसैया।


दामिनी हृदय पुलक भये हैं सबके राम रखबैया।


 


 


स्वरचित मौलिक रचना के साथ सौदामिनी खरे रायसेन मध्यप्रदेश 


 


भारत की नारी ये भारत की सुसंस्कृत नारी है।


सरल सुखद शांत शुभ्र शीतल शील धारी है।


यह भारत की नारी है।


सरित पावनी गंगा सी,नित बहती अविरल धारा है।


यह भारत की नारी है।


आशा अवंतिका अनुप्रिया अनंताआनंदी अंबिका अंबा है।


नियमा नित्या निद्रा नीरान्जना निर्भया निर्मला शुभकारी है।


यह भारत की नारी है।


गृहणी गर्विता गायत्री गौरी,गजाला गर्भिता गोपिका रानी है।


यह भारत की नारी है।


माधुरी मधुबनी माया मंदिरा सी,मीनाक्षी मृणालिनी मातेश्वरी है ।


यह भारत की नारी है।


कोमला कामिनी कृतिका काम्या सी,करुणा कृष्णा कालिका कृपाणधारी है।


यह भारत की नारी है।


चारु चंचला चपला चंद्रिका सी,चित्ता चित्रा चिरमयी चरणदासी है।


यह भारत की नारी है।


विनीता ,विषया ,वीरांगनाएँ विजया,


विभूति, विशाखा,विराटसाम्रराजयी है


भव्या, अभव्या, भवानी, भूमिका भगवती सी,


भरणी भार्या भगिनी भुवनेश्वरी भारती है।


यह भारत की नारी है।


 


 


 


 


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