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डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-6
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
स्थिर जन जग बोलहिं कैसे?
चलहिं-फिरहिं-बैठहिं वइ कैसे??
      सुनि अर्जुन कहँ,कह भगवाना।
       स्थित-प्रज्ञ-पुरुष-पहिचाना।।
होय तबहिं जब त्यागि बासना।
आत्म-तुष्ट-नर-बिगत कामना।।
       राग-क्रोध-भय-स्पृह-नासा।
       स्थिर-बुधि जन रखु बिस्वासा।।
निंदा-स्तुति-उपरि सुभाऊ।
बिगत द्वेष,स्थिर-बुधि पाऊ।।
       स्थिर बुद्धि कच्छपय नाई।
        सकल अंग जिसु सिमट लखाई।।
बिषय-भोग,इंद्रिय-सुख रहिता।
अंग-प्रत्यंग जदपि नर सहिता।।
       रागहिं निबृत-प्रबृत-परमातम।
       होवहि स्थित-प्रज्ञ महातम।।
सुनहु,पार्थ स्थिर-बुधि सोई।
मम महिमा जाकर रुचि होई।।
     विषयासक्ति कामना मूला।
     बिघ्न कामना,क्रोधइ सूला।।
क्रोधहि देइ जनम मुढ़-भावा।
भ्रमित रहहि मन मूढ़-सुभावा।।
      मूढ़-भ्रमित मन बुद्धिहिं नासा।
      ग्यान-अभाव न श्रेयहिं आसा।।
दोहा-पर,जे नर अंतःकरण,रहही तासु अधीन।
        निर्मल हृदयहिं सकल सुख,लहहि उवहि अबिछीन।।
        अस प्रमुदित चित-मनइ नर,लहहि परम सुख जानु।
         सुनहु पार्थ, बुधि-स्थिरहि,यहि जग होय महानु ।।
                            डॉ0हरि नाथ मिश्र
                             9919446372       क्रमशः.......

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-5
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
सुभ अरु असुभयइ फल कै भेदा।
निष्कामी नहिं रखहिं बिभेदा।।
      जे जन मन रह भोगासक्ती।
      अस जन बुधि नहिं निस्चय-सक्ती।।
अस्तु,होहु निष्कामी अर्जुन।
सुख-दुख-द्वंद्व तजहु अस दुर्गुन।।
      आत्मपरायन होवहु पारथ।
       लरहु धरम-जुधि बिनु कछु स्वारथ।।
पाइ जलासय भारी जग नर।
तजहिं सरोवर लघु तें लघुतर।।
       ब्रह्मानंद क पाइ अनंदा।
       बेद कहहिं नहिं नंदइ नंदा।
तव अधिकार कर्म बस होवै।
इच्छु-कर्म-फल नर जग खोवै।।
      तजि आसक्ती सुनहु धनंजय।
      करहु कर्म बिनु मन रखि संसय।।
भाव-समत्वयि,सिद्धि-असिद्धी।
करहु जुद्ध तुम्ह निस्चय बुद्धी।।
      ग्यानी जन जुड़ि बल-बुधि-जोगा।
      जन्म-बन्धनहिं तजि फल-भोगा।।
भइ निर्दोष सकल जग माहीं।
अमृत निहित परम पद पाहीं।।
       मिलइ बिराग तुमहिं हे अर्जुन।
       मोह- दलदलइ तिर तव बुधि सुन।।
दोहा-परमातम मा जबहिं सुन,स्थिर हो बुधि तोर।
        जोग-समत्वइ लभहु तुम्ह,नहिं संसय अह थोर।।
        किसुन-बचन अस सुनि कहेउ,अर्जुन परम बिनीत।
        स्थिर-बुधि जन कस अहहिं,हे केसव मम मीत ??
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372      क्रमशः.........

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-2
क्रमशः.........*दूसरा अध्याय*
धरम-जुद्ध अह छत्री-कर्मा।
नहिं हे पार्थ औरु कछु धर्मा।।
     अवसर धरम-जुद्ध नहिं खोवै।
     सो छत्री बड़ भागी होवै।।
जदि नहिं करउ धरम-संग्रामा।
होय जनम तव नहिं कछु कामा।।
      कीरति-सीरति खोइ क सगरी।
      ढोइबो पाप क निज सिर गठरी।।
अपकीरति अरु पाप-कलंका।
मरन समान होय,नहिं संका।।
      तुम्ह सम पुरुष होय महनीया।
      बीर धनुर्धर  अरु  पुजनीया।।
निंदा-पात्र न होवहु पारथ।
धर्म-जुद्ध कुरु तुम्ह निःस्वारथ।।
     समर-मृत्यु सुनु,स्वर्ग समाना।।
     महि-सुख-भोग,बिजय-सम्माना।।
दृढ़-प्रतिग्य हो करउ लराई।
करउ सुफल निज जनम कमाई।।
      सुख-दुख औरु लाभ अरु हानी।
       बिजय-पराजय एक समानी।।
समुझि उठहु तुम्ह हे कौन्तेया।
लउ न पाप कै निज सिर श्रेया।।
       जनम-मरन-बंधन जन मुक्ता।
       करहिं कर्म निष्काम प्रयुक्ता।।
कर्म सकाम करहिं अग्यानी।
इन्हकर बुधि बहु भेद बखानी।।
        निस्चय बुधि, निष्कामहि कर्मी।
        अस ग्यानी जन होवहिं धर्मी।।
दोहा-निस्चय कारक एक बुधि,करै जगत-कल्यान।
        सुनहु पार्थ,निष्काम जन,होवहिं परम महान।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372       क्रमशः..........

डॉ0हरि नाथ मिश्र

दूसरा-3
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
सुभ अरु असुभयइ फल कै भेदा।
निष्कामी नहिं रखहिं बिभेदा।।
      जे जन मन रह भोगासक्ती।
      अस जन बुधि नहिं निस्चय-सक्ती।।
अस्तु,होहु निष्कामी अर्जुन।
सुख-दुख-द्वंद्व तजहु अस दुर्गुन।।
      आत्मपरायन होवहु पारथ।
       लरहु धरम-जुधि बिनु कछु स्वारथ।।
पाइ जलासय भारी जग नर।
तजहिं सरोवर लघु तें लघुतर।।
       ब्रह्मानंद क पाइ अनंदा।
       बेद कहहिं नहिं नंदइ नंदा।
तव अधिकार कर्म बस होवै।
इच्छु-कर्म-फल नर जग खोवै।।
      तजि आसक्ती सुनहु धनंजय।
      करहु कर्म बिनु मन रखि संसय।।
भाव-समत्वयि,सिद्धि-असिद्धी।
करहु जुद्ध तुम्ह निस्चय बुद्धी।।
      ग्यानी जन जुड़ि बल-बुधि-जोगा।
      जन्म-बन्धनहिं तजि फल-भोगा।।
भइ निर्दोष सकल जग माहीं।
अमृत निहित परम पद पाहीं।।
       मिलइ बिराग तुमहिं हे अर्जुन।
       मोह- दलदलइ तिर तव बुधि सुन।।
दोहा-परमातम मा जबहिं सुन,स्थिर हो बुधि तोर।
        जोग-समत्वइ लभहु तुम्ह,नहिं संसय अह थोर।।
        किसुन-बचन अस सुनि कहेउ,अर्जुन परम बिनीत।
        स्थिर-बुधि जन कस अहहिं,हे केसव मम मीत ??
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372      क्रमशः.........

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-1
क्रमशः..…..*दूसरा अध्याय*
करब न जुधि मैं अर्जुन कहऊ।
अस कहि मौन तुरत तहँ भयऊ।।
      सुनि अर्जुन अस बचनइ राजन।
       कह संजय तब किसुन महाजन।।
बिहँसि कहेउ दोउ सेन मंझारी।
तजु हे अर्जुन संसय भारी।।
      कुरु न सोक जे सोक न जोगू।
       सोक न मन,मृत जीवित लोगू।।
कबहुँ न जे रह पंडित-ग्यानी।
साँच कहहुँ सुनु मम अस बानी।।
      आत्मा नित्य,सोक केहि कामा।
       अस्तु,सोक तव ब्यर्थ सुनामा।।
कल अरु आजु औरु कल आगे।
रहे हमहिं सब,रहहुँ सुभागे।।
       जे जन अहहिं तत्त्व-बिद-ग्यानी।
       नहिं अस धीर पुरुष अग्यानी।।
जानैं सूक्ष्म-थूल बिच अंतर।
नित्य-अनित्यहिं समुझहिं मंतर।।
       सरद-गरम, सुख-दुख संजोगा।
       छण-भंगुर ए इंद्रिय-भोगा।।
सहहु इनहिं अति मानि अनित्या।
हे कुंती-सुत ए नहिं सत्या।।
      इंद्रिय-बिषय न ब्यापै जोई।
       मोक्ष-जोग्य धीर नर सोई।।
नहिं अस्तित्व असत कै कोऊ।
रहहि सतत सत जानउ सोऊ।।
       अर्जुन, सुनु,अबिनासी नित्या।
        नित्य नास नहिं मानहु सत्या।।
दोहा-मानि सत्य अस मम बचन,जुद्ध करन हो ठाढ़।
        हे कुंती-सुत धीर धरु,रोकउ भ्रम कै बाढ़ ।।
                           डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372 क्रमशः.......

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-4
क्रमशः......*पहला अध्याय*
संकरबर्ण होंय कुलघाती।
नरकहिं जाँय सकल संघाती।।
       पिण्डदान-जलक्रिया अभावहिं।
       केहु बिधि पितर मुक्ति नहिं पावहिं।।
अनंत काल रह नरक-निवासा।
होवहि जब कुल-धर्महि-नासा।।
      सुनहु जनर्दन हे बर्षनेया।
      कुल-बिनास नहिं लेबउँ श्रेया।।
मिलै न सुख निज कुल करि नासा।
सुनहु हे माधव,मम बिस्वासा ।।
      करिअ न जानि-बूझि बिषपाना।
       जे अस करै न नरक ठेकाना।।
राज-भोग,सुख-भोग न मोहा।
हम बुधि जनहिं न कछु सम्मोहा।।
       अस्तु,सुनहु हे मीत कन्हाई।
       अघ करि,जदि सुख, मोहिं न भाई।।
दोहा-रन-भुइँ जदि धृतराष्ट्र-सुत,सस्त्रहीन मोहिं जान।
        घालहिं,मों नहिं रोष कछु,तदपि चाहुँ कल्यान।।
        अस कहि के अर्जुन तुरत,जुद्ध मानि दुर्भाग।
        बान औरु धनु त्यागि के,बैठे रथ-पछि-भाग।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372
                     पहला अध्याय समाप्त।

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-3
क्रमशः.....*पहला अध्याय*
संख युधिष्ठिर बिजय अनंता।
नकुल सुघोषय घोष दिगंता।।
    संखइ मणिपुष्पक सहदेवा।
     संख-नाद कीन्ह कर लेवा।।
दोहा-कासिराज-धृष्टद्युम्न अरु, सात्यकि औरु बिराट।
        द्रुपद-सिखण्डि-अभिमन्यु अपि,औरु सभें सम्राट।।
        कीन्ह भयंकर संख-ध्वनि,द्रोपदि पाँचवु पुत्र।
         संख-नाद, रन-भेरि तें, ध्वनित सकल दिसि तत्र।।
भय बड़ कम्पित मही-अकासा।
सुनतहि कुरु-दल भवा उदासा।।
     कर गहि निज धनु कह तब अर्जुन।
     हे हृषिकेश बचन मम तुम्ह सुन।।
लावव रथ दोउ सेन मंझारे।
हे अच्युत,श्री नंददुलारे।।
     चाहहुँ मैं देखन तिन्ह लोंगा।
      जे अहँ करन जुद्ध के जोगा।।
जे जन जुद्ध करन यहँ आये।
दुर्जोधन के होय सहाये।।
    तब रथ लाइ कृष्न किन्ह ठाढ़ा।
    मध्य सेन दोउ प्रेम प्रगाढ़ा।।
भिष्म-द्रोण सब नृपन्ह समच्छा।
सेनापति जे कुरु-दल दच्छा।।
     लखहु सभें कह किसुन कन्हाई।
     हे अर्जुन निज लोचन बाई।।
पृथापुत्र अर्जुन लखि सबहीं।
भ्रात-पितामह-मामा तहँहीं।।
     औरु ससुर-सुत-पौत्रहिं-मीता।
      सुहृद जनहिं लखि भे बिसमीता।।
लखि तहँ सकल बंधु अरु बांधव।
कुन्तीसुत कह सुनु हे माधव।।
दोहा-जुद्ध करन लखि अपुन जन,सिथिल होय मम गात।
      कम्पित बपु मुख सूखि गे, निकसत नहिं कछु बात।।
गाण्डिव धनु कर तें गिरै, त्वचा जरै जनु मोर।
सक न ठाढ़ि मम मन भ्रमित,सुनहु हे नंदकिसोर।।
               डॉ0हरि नाथ मिश्र
               9919446372 क्रमशः.......

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-2
क्रमशः......*पहला अध्याय*
लच्छन सबहिं लगहिं बिपरीता।
सुनहु हे केसव मन भयभीता।।
      निज बंधुन्ह कहँ जुधि मा मारी।
      होवे कबहुँ न कुल-हितकारी।।
बिजय न चाहहुँ, नहिं सुख-भोगा।
अपुनन्ह बधि का राज-प्रयोगा।।
      हे गोबिंद मीत सुनु मोरा।
      निज कुल नास करन अघ घोरा।।
गुरुजन-ताऊ-चाचा-दादा।
बध निज सुतन्ह नास मरजादा।।
      सुनु मधुसूदन कबहुँ न मारूँ।
      तीनिउ लोक भोग तजि डारूँ।।
निज कुल-बध बस महि-सुख-भोगा।
होवै हे हृषिकेस कुभोगा ।।
       कुरु पुत्रन्ह बध सुनहु जनर्दन।
        मिलइ पाप पून्य नहिं बर्धन।।
बध करि अपुन्ह बन्धवहिं माधव।
बिजय होय बरु होय पराभव।।
       जदपि भ्रष्टचित, लोभ के मोहा।
       कुल बिनास करि लखहिं न द्रोहा।।
कुल बिनास मैं मानूँ पापा।
सुनहु जनर्दन,जुधि अभिसापा।।
      कुल-बिनास कुल-धर्म बिनासा।
       धर्म -नास कुल पाप-निवासा।।
सोरठा-जब बाढ़ै बहु पाप,दूषित हों कुल-नारि सब।
           सुनहु हे माधव आप,बर्ण संकरहिं जन्महीं।।
                          डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372          क्रमशः.....

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-1
                *गीता-सार*  -डॉ0हरि नाथ मिश्र
                (पहला अध्याय)
मोहिं बतावउ संजय तुमहीं।
कुरुक्षेत्र मा का भय अबहीं।।
   कीन्हेंयु का सुत सकल हमारे।
   पांडु-सुतन्ह सँग जुद्ध मँझारे।।
अस धृतराष्ट्र प्रस्न जब कीन्हा।
तासु उतर संजय तब दीन्हा।।
   संजय कह सुन हे महराजा।
   पांडव-सैन्य ब्यूह जस साजा।
लखतय जाहि कहेउ दुर्जोधन।
सुनहु द्रोण गुरु मम संबोधन।
   द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न तुम्हारो।
   बृहदइ सैन्य ब्यूह रचि डारो।
पांडव जन कै सेना भारी।
लखहु हे गुरुवर नैन उघारी।।
   सात्यकि अरु बिराट महबीरा।
   अर्जुन-भीम धनुर्धर धीरा।।
धृष्टकेतु-पुरुजित-कसिराजा।
चेकितान-सैब्य जहँ छाजा।।
     परम निपुन जुधि मा उत्तमोजा।
     रन-भुइँ अहहिं कुसल कुंतिभोजा।।
संग सुभद्रा-सुत अभिमन्यू।
पाँचवु पुत्र द्रोपदी धन्यू।।
   ये सब अहहिं परम बलवाना।
   जुधि-बिद्या अरु कला-निधाना।।
निरखहु इनहिं औ निरखहु मोरी।
बरनन जासु करहुँ कर जोरी।।
   दोहा-हे द्विज उत्तम गुरु सुनहु,जे कछु कहहुँ मैं अब।
          मम सेनापति,सेन-गति,जे कछु तिन्ह करतब।।
स्वयं आपु औ भीष्मपितामह।
कृपाचार गुरु बिजयी जुधि रह।।
     कर्ण-बिकर्णय-अस्वत्थामा।
     भूरिश्रवा बीर बलधामा।।
बहु-बहु सूर-बीर बलसाली।
अस्त्र-सस्त्र सजि सेन निराली।।
    अहहि मोर सेना अति कुसला।
    जुद्ध-कला बड़ निपुनइ सकला।।
भीष्मपितामह रच्छित सेना।
भीमसेन जेहि जीत सके ना।।
    अस्तु,सभें जन रहि निज स्थल।
    भीष्मपितामह रच्छहु हर-पल।।
सुनि दुर्जोधन कै अस बचना।
भीष्म कीन्ह निज संख गर्जना।।
     ढोल-मृदंगय-संख-नगारा।
     कीन्ह नृसिंगा जुधि-ललकारा।।
धवल अस्व-रथ चढ़ि ध्वनि कीन्हा
अर्जुन-कृष्न संख कर लीन्हा।।
    पांचजन्य रह संख किसुन कै।
    देवयिदत्त संख अर्जुन कै।।
संख पौंड्र भिमसेन बजायो।
रन-भुइँ संख-नाद गम्भीरायो।।
            डॉ0हरि नाथ मिश्र
             9919446372       क्रमशः.......

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-7
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
नहिं कोउ सत्ता प्रभू समाना।
महिमा प्रभुहिं न जाइ बखाना।।
    परे त्रिकालहिं नाथ प्रभावा।
    भूत-भविष्य न आज सतावा।।
लगहिं प्रकासित स्वयं प्रकासा।
जीव न अवनिहिं,जीव अकासा।।
     नहिं जड़ता,नहिं चेतन भावा।
     एकरसहिं रह तिनहिं सुभावा।।
सकल उपनिषद तत्वहिं ग्याना।
तिनहिं अनंत सार नहिं जाना।।
   सबके सब पर ब्रह्महिं रूपा।
   परम आत्मा कृष्न अनूपा।
रहै चराचर जासु प्रकासा।
सतत प्रकासित अवनि-अकासा।।
    अस लखि ब्रह्मा भए अचंभित।
    परम छुब्ध-स्तब्ध-ससंकित।।
जस कठपुतरी रह निस्प्राना।
ब्रह्मा भे समच्छ भगवाना।।
    तासु प्रभाव-तेज सभ बुझिगे।
    किसुनहिं लीला तुरत समुझिगे।।
सुनहु परिच्छित प्रभु भगवाना।
परे सकल तर्क जग माना।।
    स्वयं प्रकासानंदइ रूपा।।
    मायातीतइ नाथ अनूपा।।
कृष्न हटाए जब सभ माया।
बाह्य ग्यान तब ब्रह्मा आया।।
    मानउ ब्रह्मा जीवन पाए।
    भे सचेत सभ परा लखाए।।
निज सरीर अरु जगतहि देखा।
बृंदाबन सभ दिसा निरेखा।।
दोहा-बृंदाबन कै भूइँ पै, रहै प्रकृति कै बास।
        पात-पुष्प-फल-तरु बिबिध,बिबिधइ जीव-निवास।।
                    डॉ0हरि नाथ मिश्र
                     9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-6
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
बरस-काल एक जब बीता।
ब्रह्मा आए ब्रजहिं अभीता।।
 लखतै सभ गोपिन्ह अरु बछरू।
खात-पियत रह उछरू-उछरू।।
    भए अचम्भित भरमि अपारा।
     लखहिं सबहिं वै बरम्बारा।।
किसुन कै माया समुझि न पावैं।
पुनि-पुनि निज माया सुधि लावैं।।
     असली-नकली-भेद न समुझहिं।
      निज करनी सुधि कइ-कइ सकुचहिं।।
जदपि अजन्मा ब्रह्मा आहीं।
किसुनहिं माया महँ भरमाहीं।।
     भरी निसा-तम कुहरा नाईं।
     जोति जुगुनु नहिं दिवा लखाईं।।
वैसै छुद्र पुरुष कै माया।
कबहुँ न महापुरुष भरमाया।।
    तेहि अवसर तब ब्रह्मा लखऊ।
बछरू-गोप कृष्न-छबि धरऊ।।
   सबहिं के सबहिं पितम्बरधारी।
   सजलइ जलद स्याम बनवारी।।
चक्रइ-संख,गदा अरु पद्मा।
होइ चतुर्भुज बिधिहिं सुधर्मा।।
    सिर पै मुकुट,कान महँ कुंडल।
    पहिनि हार बनमाला भल-भल।।
बछस्थल पै रेखा सुबरन।
बाजूबंद बाहँ अरु कंगन।।
   चरन कड़ा,नूपुर बड़ सोहै।
    कमर-करधनी मुनरी मोहै।।
नख-सिख कोमल अंगहिं सबहीं।
तुलसी माला धारन रहहीं।।
     चितवन तिनहिं नैन रतनारे।
     मधु मुस्कान अधर दुइ धारे।।
दोहा-लखि के ब्रह्मा दूसरइ,अचरज ब्रह्मा होय।
        नाचत-गावत अपर जे,पूजहिं देवहिं सोय।।
       अणिमा-महिमा तें घिरे,बिद्या-माया-सिद्ध।
        महा तत्व चौबीस लइ, ब्रह्मा दूजा बिद्ध।
                     डॉ0हरि नाथ मिश्र
                      9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-5
*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
जब रह रात पाँच-छः सेषा।
कालहिं बरस एक अवसेषा।।
    बन मा लइ बछरू तब गयऊ।
    किसुन भ्रात बलदाऊ संघऊ।।
सिखर गोबरधन पै सभ गाई।
हरी घास चरि रहीं अघाई।।
     लखीं चरत निज बछरुन नीचे।
     उछरत-कूदत भरत कुलीचे।।
बछरुन-नेह बिबस भइ धाईं।
रोके रुक न कुमारग आईं।।
    चाटि-चाटि निज बछरुन-देहा।
    लगीं पियावन दूध सनेहा।।
नहिं जब रोकि सके सभ गाईं।
गोप कुपित भइ मनहिं लगाईं।।
    पर जब निज-निज बालक देखा।
    बढ़ा हृदय अनुराग बिसेखा।।
तजि के कोप लगाए उरहीं।
निज-निज लइकन तुरतै सबहीं।।
    पुनि सभ गए छाँड़ि निज धामा।
     भरि-भरि नैन अश्रु अभिरामा।।
भयो भ्रमित भ्राता बलदाऊ।
अस कस भयो कि जान न पाऊ।।
     कारन कवन कि सभ भे वैसै।
     मम अरु कृष्न प्रेम रह जैसै।।
जनु ई अहहि देव कै माया।
अथवा असुर-मनुज-भरमाया।।
    अस बिचार बलदाऊ कीन्हा।
    पर पुनि दिब्य दृष्टि प्रभु चीन्हा।।
माया ई सभ केहु कै नाहीं।
सभ महँ केवल कृष्न लखाहीं।।
दोहा-बता मोंहि अब तुम्ह किसुन, अस काहें तुम्ह कीन्ह।
        तब बलरामहिं किसुन सभ,ब्रह्म-भेद कहि दीन्ह।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र।
                         9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-4
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
कीन्ह प्रबेस कृष्न ब्रज-धामा।
बछरू-गोप सबहिं निज नामा।।
     सभ बछरू गे निज-निज साला।
     गए गोप निज गृहहिं निहाला।।
बँसुरी-तान सुनत सभ माई।
बिधिवत किसुनहिं गरे लगाईं।।
     लगीं करावन स्तन-पाना।
     अमरित दूधहिं जे चुचुवाना।।
प्रति-दिन क्रिया चलै यहिं भाँती।
किसुन कै लीला दिन अरु राती।।
    संध्या-काल लवटि घर आई।
    सभ मातुन्ह सुख देहिं कन्हाई।।
उपटन मीजि औरु नहलाई।
चंदन-लेप लगाइ-लगाई।।
     भूषन-बसन स्वच्छ पहिराई।
      होंहिं अनंदित ग्वालहिं माई।।
भौंहनि बीच लगाइ डिठौना।
लाड़-प्यार करि देइ खिलौना।।
     भोजन देइ सुतावहिं माता।
     लीला अद्भुत तोर बिधाता।।
ठीक अइसहीं ब्रज कै गइया।
दूध पियावहिं बच्छ-कन्हैया।।
    साँझ-सकारे पहिरे घुघुरू।
    दौरत आवैं किसुनहिं बछरू।।
चाटि जीभ तें नेह जतावैं।
दूध पियाइ परम सुख पावैं।।
     जदपि तिनहिं रह परम सनेहा।
     निज-निज सुतहिं बिनू कछु भेहा।।
पर नहिं किसुन जतावैं प्रेमा।
चाहिअ जस सुत-मातु सनेमा।।
    यावत बरस एक अस रहहीं।
    ब्रज महँ प्रेम-लता रह बढ़हीं।।
बालक-बछरू,माता-गाई।
बच्छ-सुतहिं बनि रहे कन्हाई।।
दोहा-एक बरस तक किसुन तहँ, रहे बच्छ बनि गोप।
         लीला सभें दिखावहीं, नेह-भाव चहुँ छोप।।
                    डॉ0हरि नाथ मिश्र।
                     9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-3
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
बछरू मिले न ग्वालहिं पावा।
किसुनहिं मन बिचार अस आवा।।
   अवसि खेल अस ब्रह्मा कीन्हा।
    बछरू-गोप छिपाई लीन्हा।।
सकल ग्यान अरु सक्ति-स्वरूपा।
तेज-प्रतापय-अमित-अनूपा।।
   प्रभु रह इहाँ-उहाँ सभ जगहीं।
   नहिं कछु अलख,लखहिं प्रभु सबहीं।।
ब्रह्मा-मोह मिटावन हेतू।
कीन्हा माया कृपा-निकेतू।।
     जितने बछरू,जितने गोपा।
     वहि सुभाव रँग-रूप अनूपा।।
बात-चीत अरु हँसी-ठिठोली।
जैसहिं चलैं-फिरैं निज टोली।।
     नाम-गुनहिं अरु भूषन-बसना।
     जैसहिं बोलैं निज-निज रसना।।
खावन-पिवन, उठन अरु बैठन।
छड़ी-बाँसुरी,सिंगी-छींकन।।
   हाथ-पाँव अरु छोट सरीरा।
   प्रगटै किसुन भए बनबीरा।
मूर्तिमती भइ बेद क बानी।
बिष्नुमयी ई जगत-कहानी।।
     बछरू-बालक भइ भगवाना।
     बछरू गोपहिं माँ सुख पाना।।
ग्वालहिं बाल होइ बहु बछरू।
खेलत-कूदत लेइ क सगरू।।
           डॉ0हरि नाथ मिश्र
            9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-2
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
ग्वालन मध्य किसुन अस सोहैं।
कमल-कली जस दल बिच मोहैं।।
    पुष्पइ-पत्ता,पल्लव-छाला।
    छींका-अंकुर-फलहिं निराला।।
पाथर-पात्र बनाइ क सबहीं।
निज-निज रुचि कै भोजन करहीं।।
    केहू हँसै हँसावै कोऊ।
    लोट-पोट कोउ हँसि-हँसि होऊ।।
सिंगी बगल कमर रह बँसुरी।
कृष्न-छटा बहु सुंदर-सुघरी।।
   दधि-घृत-सना भात कर बाँये।
   निम्बु-अचारहि अँगुरि दबाये।।
ग्वाल-बाल बिच किसुनहिं सोहैं।
उडुगन मध्य जथा ससि मोहैं।।
   एकहि प्रभू सकल जगि भोक्ता।
   ग्वालन सँग करि भोजन सोता।।
लखि अस छटा देव हरषाहीं।
नभ तें सबहिं सुमन बरसाहीं।।
   भए गोप सभ भाव-बिभोरा।
   बछरू चरत गए बन घोरा।।
करउ न चिंता भोजन करऊ।
अस कहि किसुन घोर बन गयऊ।।
     करैं अभीत भगत जे भीता।
     बिपति भगावैं प्रभु बनि मीता।।
दधि-घृत-सना कौर लइ भाता।
बछरू हेरन चले बिधाता।।
    तरु-कुंजन अरु गुहा-पहारा।
     मिलहिं न बछरू सभें निहारा।
सुनहु परिच्छित ब्रह्मा-मन मा।
अस बिचार उपजा वहि छन मा।।
    देखन औरउ लीला चाहहिं।
    बादइ मोच्छ अघासुर पावहिं।।
सोरठा-ब्रह्मा माया कीन्ह,भेजा किसुनहिं बनहिं महँ।
           तुरत भेजि पुनि दीन्ह,सभ ग्वालन निरजन जगहँ।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-1
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1
बड़ भागी तुम्ह अहउ परिच्छित।
अस कह मुनि सुकदेव सुसिक्षित।।
      जदपि कि तुम्ह जानउ प्रभु-लीला।
      पुनि-पुनि पुछि यहिं करउ रसीला।।
रसिक संत-रसना अरु काना।
कथन-श्रवन प्रभु-चरित सुहाना।।
     अहइँ जगत मा सुनहु परिच्छित।
     प्रभु-बखान जग रखै सुरच्छित।।
नारि-बखानइ लंपट भावै।
सुनि प्रभु-चरित संत सुख पावै।।
     रहसि भरी लीला भगवाना।
     संत-मुनी-ऋषिजन जे जाना।।
कहहिं सबहिं मिलि कथा सुहाई।
सुनहिं रसिक जन मन-चित लाई।।
     मारि क अघासुरहिं भगवाना।
      रच्छा कीन्ह गोप-बछ-प्राना।।
लाइ सभें जमुना के तीरे।
कहहिं किसुन मुसकाइ क धीरे।।
    सकल समग्री अहहीं इहवाँ।
    खेलन हेतु हमहिं जे चहवाँ।।
स्वच्छ-नरम सिकता ई बालू।
जमुन-तीर सभ रहहु निहालू।।
     भौंरा-गुंजन अति मन-भावन।
     खिले कमल सभ लगहिं सुहावन।।
पंछी-कलरव मधुर-सुहाना।
तरु-सिख बैठि सुनावहिं गाना।।
    करउ सबहिं मिलि भोजन अबहीं।
     भूखि-पियासिहिं तड़पैं सबहीं।।
चरहिं घास सभ बछरू धाई।
जल पीवहिं सभ इहवाँ आई।।
दोहा-सुनत बचन अस किसुन कै, ग्वाल-बाल सभ धाहिं।
        बछरुन्ह जलहिं पियाइ के,बैठि किसुन सँग खाहिं।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-6
  *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
आत्मानंदहिं प्रकट स्वरूपा।
कहैं बेद अस प्रभू अनूपा।।
     निकट न आवै कबहूँ माया।
     जल-थल-नभ सभ प्रभुहिं समाया।।
अघासुरै तन नाथ समावा।
यहितें पापी सद्गति पावा।
     यहि मा कछु नहिं अब संदेहा।
     सभ मा प्रभू रहहिं बिनु देहा।।
सौनक ऋषिहीं कहे सूत जी।
जीवन-दानय दिए किसुन जी।।
     सभ जन रच्छक किसुनहिं जानउ।
     जदुकुल-भूषन किसुनहिं मानउ।।
जानि बिचित्र चरित भगवाना।
नृपइ परिच्छित बनि अनजाना।।
     जानन चाहे प्रभु कै लीला।
     प्रश्न पूछि सुकदेवहिं सीला।।
पचवें बरस कै जे रह लीला।
कस भइ छठें बरस अनुसीला।।
     अस अचरज मैं जानि न पावउँ।
      हमहिं क गुरुवर अबहिं बतावउँ।।
दोहा-सुनहु परम प्रेमी भगत,सौनक जी महाराज।
         कहे सूत सुकदेव तब,नृपहिं कहा प्रभुराज।।
                     डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-5
  *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
स्तुति-पाठ द्विजहिं सभ कीन्हा।
गा प्रसाद गंधर्बहिं लीन्हा ।।
   पर्षद सभें कीन्ह जयकारा।
   हते अघासुर प्रभु उपकारा।।
सुनतै स्तुति-मंगल गाना।
उछरि-कूदि आनंद मनाना।।
    ब्रह्मा ब्रह्म-लोक तें आए।
    किसुनहिं महिमा लखि सुख पाए।।
कीन्हेउ अघासुरै उद्धारा।
काल-मुहहिं तें गोप उबारा।।
     भई मही जनु पाप-बिहीना।
     सभें सरन निज नाथहिं लीना।।
प्रभु के छुवन मात्र अघ भागै।
सोवै पाप पुन्य जग जागै।।
    कारन-करम व ब्यक्त-अब्यक्ता।
    पुरुषइ परम सनेही-भक्ता।।
बाल-रूप जग लीला करहीं।
प्रभु परमातम सभ जन कहहीं।।
दोहा-एक मूर्ति प्रभु राखि के,करै जे नित-प्रति ध्यान।
         हिय मा रखि निरखै छबी,होय तासु कल्यान।।
        वहि सालोक्य-समीप्यही,वइसै गति कै दान।
        अस जन मिलै सतत इहाँ,अह जे भगत प्रधान।।
              डॉ0हरि नाथ मिश्र
               9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-4
  *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
सुनहु परिच्छित किसुन-गोपाला।
जानहिं बिधिवत तीनिउ काला।।
   भूत-भविष्य-आजु प्रभु जानैं।
   छूत-अछूत-भेद नहिं मानैं।।
समदरसी प्रभु अंतरजामी।
रच्छहिं निज सेवक-अनुगामी।।
    जस उड़ि तिनका परे अगिनि मा।
     भभकत जरै तुरत ही वहि मा।
वइसहि परिगे सभ मुख माहीं।
जठर अगिनि मा जरिहैं ताहीं।।
    छिन भर मा तब किसुन-कन्हाई।
    अजगर-मुख मा गए समाई।।
किसुन-गमन लखि अजगर-मुख मा।
चिंतित सुरहिं  भए सभ नभ मा।।
    कंसहिं औरु अघासुर मीता।
     लखि प्रबेस प्रभु मुदित-अभीता।।
तुरतै प्रभु निज देह बढ़ावा।
अघासुरै बहु पीरा पावा।।
     गला अघासुर रुधिगा तुरतइ।
     दुइनिउ आँखि पुतरि गे उल्टइ।।
साँसहिं थमी निकसि गे प्राना।
इंद्रिय सुन्य बदन बिनु जाना।।
     अजगर थूल बदन तें निकसी।
     अद्भुत जोति चहूँ-दिसि बिगसी।।
कछु पल ठाढ़ि रही ऊ तहवाँ।
पुनि भइ लोप किसुन लखि उहवाँ।।
    जाइ समाइ गई सुरगनहीं।
    नभ तें सुमनहिं देव बरसहीं।।
दोहा-सभें कीन्ह अभिनंदनइ, किसुनहिं साथे-साथ।
         विद्याधर अरु अप्सरा,गाइ-नाचि नत माथ।
                       डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-2
    *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
बहु-बहु नदी-कछारन जाहीं।
उछरहिं मेंढक इव जल माहीं।।
   जल मा लखि परिछाईं अपुनी।
   कछुक हँसहिं करि निज प्रतिध्वनी।।
संतहिं-ग्यानिहिं ब्रह्मानंदा।
स्वयम कृष्न तेहिं देंय अनंदा।।
  सेवहिं भगतहिं दास की नाईं।
इहाँ-उहाँ तिहुँ लोकहिं जाईं।।
रत जे बिषय-मोह अरु माया।
बाल-रूप प्रभु तिनहिं लखाया।।
    अहहिं पुन्य आतम सभ ग्वाला।
    खेलहिं जे संगहिं नंदलाला।।
जनम-जनम ऋषि-मुनि तप करहीं।
पर नहिं चरन-धूरि प्रभु पवहीं।।
     धारि क वहि प्रभु बालक रूपा।
      ग्वाल-बाल सँग खेलहिं भूपा।।
रह इक दयित अघासुर नामा।
पापी-दुष्ट कपट कै धामा।।
    रह ऊ भ्रात बकासुर-पुतना।
     तहँ रह अवा कंस लइ सुचना।।
आवा तहाँ जलन उर धारे।
अवसर पाइ सबहिं जन मारे।।
     करि बिचार अस निज मन माहीं।
     अजगर रूप धारि मग ढाहीं।।
जोजन एक परबताकारा।
धारि रूप अस मगहिं पसारा।।
    निज मुहँ फारि रहा मग लेटल।
    निगलै वहिं जे रहल लपेटल।।
एक होंठ तिसु रहा अवनि पै।
दूजा फैलल रहा गगन पै।।
     जबड़ा गिरि-कंदर की नाईं।
     दाढ़ी परबत-सिखर लखाईं।
जीभइ लाल राज-पथ दिखही।
साँस तासु आँधी जनु बहही।।
      लोचन दावानलइ समाना।
      दह-दह दहकैं जनु बरि जाना।।
सोरठा-अजगर देखि अनूप,कौतुक होवै सबहिं मन।
           अघासुरै कै रूप,निरखहिं सभ बालक चकित।।
                               डॉ0हरि नाथ मिश्र
                                9919446372

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