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दुर्गा प्रसाद नाग - आज का सम्मानित कलमकार

आज का सम्मानित कलमकार 

नाम– दुर्गा प्रसाद नाग
माता– श्रीमती कांती देवी
पिता– श्री लक्ष्मी नारायण
पता– ग्राम,पोस्ट व ब्लॉक– नकहा
जिला–लखीमपुर खीरी
(उत्तर प्रदेश)262728
मो०–9839967711
शैक्षिक योग्यता– स्नातक
वृत्ति–कला अध्यापक (PTA)
1-🌹🌹🌹 गीत 🌹🌹🌹

स्वर तुम्हारा अगर मुझको मिलता रहा,
गीत मेरे यूं ही संवर जाएंगे।
लोग कहते हैं पागल मुझे आज मां,
कल उनकी नजर में उभर जाएंगे।।
_____________________
खुशबू आएगी कागज के फूलों से भी,
लोग देखेंगे भी, लोग जानेंगे भी।
आश बंधती नहीं, लाख बन्धन में भी,
लोग समझेंगे भी, लोग जानेंगे भी।।

गर तुम्हारा सहारा यूं मिलता रहा,
पत्थरों के हृदय भी पिघल जाएंगे।
लोग कहते हैं पागल मुझे आज मां,
कल उनकी नजर में उभर जाएंगे।।
_____________________
स्वर की देवी ने मुझपे करम जो किया,
हम झुकेंगे नहीं, लोग कुछ भी कहें।
अपनी किस्मत में कांटे हों फिर भी सही,
लोग जैसे भी चाहें, चमन में रहें।।

मां, तुम्हारी दया से चमन में ही तो,
सूखी डाली में भी फूल खिल जाएंगे।
लोग कहते हैं पागल मुझे आज मां,
कल उनकी नजर में उभर जाएंगे।।
_____________________

2-
🥀🥀🥀((गीत))🥀🥀
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

_____________________
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________
मेरी भावनाएं, ये शुभकामनाएं,
तेरे साथ में हैं, तेरे साथ जाएं।

तेरे पथ के कांटे, बने पुष्प सारे,
तेरे रास्ते में दिए जगमगाएं।।

यही कामना है सदा मुस्कराना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________
ये जीवन समर है, इसे लड़ना होगा,
कदम से कदम तक, तुम्हे बढ़ना होगा।

अंधेरा सफर है, उजाले की खातिर,
अमर हैं किताबें, तुम्हे पढ़ना होगा।।

किसे जीतना है, व किसको हराना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________
कदमों को अपने भटकने न देना,
ये लंबा सफर है, बहुत दूर मंजिल।

हो तन्हा सफर में, ये महसूस करना,
भले हो तुम्हारे हर ओर महफ़िल।।

कहीं हंस न पाए तुम्हे, ये जमाना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________
माता पिता व गुरु के वचन को,
कभी भूलकर भी न तुम भूल जाना।

न अभिमान करना कभी भी, स्वयं पर,
किसी की डगर पे न कांटे बिछाना।।

सदा रोशनी के दिए तुम जलाना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________


3-
_____________________
दुनिया के रीति रिवाजों से,
एक रोज बगावत कर बैठे।

महबूब की गलियों से गुजरे,
तो हम भी मोहब्बत कर बैठे।।
_____________________

मन्दिर-मस्जिद से जब गुजरे,
पूजा व इबादत कर बैठे।

जब अाई वतन की बारी तो,
उस रोज सहादत कर बैठे।।
_____________________

दुनिया दारी के चक्कर में,
जाने की हिम्मत कर बैठे।

गैरों के लिए हम भी इक दिन,
अपनों से शिकायत कर बैठे।।
_____________________

जो लोग बिछाते थे कांटे,
हम उनसे इनायत कर बैठे।

पीछे से वार किये जिसने,
हम उनसे सराफत कर बैठे।।
_____________________

हमने अहसानों को माना,
वो लोग अदावत कर बैठे।

हर बात सही समझी हमने,
वो लोग शरारत कर बैठे।।
_____________________

उनके जीवन की हर उलझन,
हम सही सलामत कर बैठे।

पर मेरी हंसती दुनिया में,
कुछ लोग कयामत कर बैठे।।
_____________________


4- 🥀🥀🥀 गज़ल 🥀🥀🥀
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

औरों के लिए औरत.....
कहते हैं सभी गैरत......

करती है प्यार जिसे
क्यों पाती है नफ़रत

दुनिया ये कहती है
इक जज़्बा है औरत

जो कर न सके कोई
वो कर सकती औरत

इंसान खिलौना है
उस्ताद तो है औरत

इंसान को दुनिया में
पैदा करती औरत

जो लोग समझते हैं
कमजोर है हर औरत

हर मोड़ पे मिलती है
उन लोगों को जिल्लत

औरत वो शोला है
देती है जला नफ़रत

इंशा जो इबादत है
मंदिर- मस्जिद औरत

औरत वो तराजू है
जो तौलती है उल्फत

इक पलड़े में बदनामी
इक पलड़े में है शौहरत
_____________________


5- वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________
जिस पर तेरा नाम लिखा है,
रंग बिरंगे फूलों जैसा।

जिस पर मेरा दर्द लिखा है,
रेगिस्तान के शूलों जैसा।।

कितनी मिन्नत की थी मैने,
तब तुमने वो नाम लिखा था।

अपने आंसू की स्याही से,
सुबह-ओ-शाम लिखा था।।

मेरे जीवन की सांसों का,
एक वही स्वर- सजिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________

जिसमें इक "तस्वीर" है तेरी,
जिससे हंसकर बात करूं मैं।

जिसमें इक तकदीर है मेरी,
जन्नत दिन और रात करूं मैं।।

कितनी कोशिश की थी मैने,
तब तुमने तस्वीर वो दी थी।

उससे वक्त कटेगा मेरा........,
समझो बस "शमशीर" वो दी थी।।

सारे पन्नों के समाज में,
जैसे वो भी बासिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________

जिसमें एक गुलाब रखा है,
मरा हुआ है, सूख चुका है।

अपनी अंतिम सांसे देकर,
स्वाभिमान को फूंक चुका है।।

कितनी चाहत की थी मैने,
तब तुमने वो फूल दिया था।

सूनी आंखों में चुभता है,
ऐसा तुमने शूल दिया था।।

खुशबू उसकी अभी अमर है,
लेकिन फूल नहीं जिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________

जिसके सीने पर रखा वो,
लाल- कलम अब भी रोता है।

जैसे इक मां के आंचल से,
"लाल" लिपटकर के सोता है।।

कितनी इज्जत की थी मैने,
तब तुमने वो कलम दिया था।

लिखने को ये गीत अधूरा,
तुमने साज-ए-अलम दिया था।।

तुम्हीं बताओ कैसे लिख दूं ,
तेरा प्यार कहीं जिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________

कितनी बार कहा था तुमसे,
मुझको प्रिया गीत वो लिख दो।

मेरा मन बहलाने को ही,
मुझको पागल मीत ही लिख दो।।

कितनी हिम्मत की थी हमने,
तब तुमने वो गीत लिखा था,

याद रहे मुझको जीवन भर,
ऐसा स्वर- संगीत लिखा था।।

आज जुदा हो जाने पर भी
"दुर्गा" तुमसे शर्मिन्दा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

दुर्गा प्रसाद नाग
नकहा- खीरी
मोo- 9839967711

एस के कपूर श्री हंस - काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार

काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार

कवि- परिचय
(साहित्यिक/समाजिक/सेवाकाल)
*1* नाम:एस के कपूर"श्री हंस"
*2*. पिता का नाम :स्व0 बृज लाल कपूर जी
*3* माता का नाम :स्व0 सावित्री देवी कपूर जी
*4*.पति का नाम (विवाहिता हेतु):,,,,,,
*5* जन्म तिथि:07 जून 1950
*6* जन्म स्थान: नई दिल्ली
7.वर्तमान स्थायी पता: 06,पुष्कर एनक्लेव,टेलीफोन टॉवर के सामने
स्टेडियम रोड,बरेली ,उत्तर प्रदेश पिन
243005
*8*. शिक्षा : एम एस सी (रसायन शास्त्र)
सी ए आई आई बी (भाग 1)
*9* लेखन की विधाएँ: गद्य(आलेख,निबंध, संस्मरण, समाचार पत्र सूचना आदि)
पद्य(मुक्तक, मुक्तक माला,हाइकु,छंद मुक्त(तुंकान्त व अतुकांत), कुंडलियां,मनहरण छंद(8 8 8 7) आदि) ग़ज़ल अभी लगभग 100 (विशेष। लगभग 10000 मुक्तकों की रचना अब तक)
*10*. कृतित्व:
*(क)* प्रकाशित ग्रंथ ई पत्रिका (हारेगा कॅरोना) लोकार्पण दिनाँक 20।06।2020
*(ख)* अप्रकाशित ग्रंथ ई पत्रिका( व्यक्तित्व विकास पर केंद्रित)
*(ग)* संपादन सलेक्टेड न्यूज़ समाचार पत्र,बरेली(मई 2014 से मई 2016)
पीलीभीत मिड टाउन जेसीज व अवध जेसीज की स्मारिकाओं का संपादन।
*(घ)* पत्र पत्रिका में प्रकाशन,,,,आई नेक्स्ट(144 लेख प्रकाशित) ,कलीग,हम दोस्त।संवाद।सेकंड इनिंग्स, परफेक्ट जरनीलिस्ट,हेल्थ वाणी,गीत प्रिया, प्रेरणा अंशु,रोहिलखण्ड किरण।काव्या मृत।काव्य स्पंदन।
काव्य रंगोली।काव्य धारा।स्वर्ण धारा।
इंकलाब व अनेकानेक विश्व जन चेतना ट्रस्ट ,साहित्य संगम संस्थान दिल्ली व अन्य ई पत्रिकाओं में रचनायों व लेखों का प्रकाशन।
विभिन्न संस्थाओं के ब्लॉग।।पोर्टल।।वेबसाइट।।यू ट्यूब।।टी वी चैनल।। गूगल पेज।। आदि पर रचनाओं।।लेखों का प्रकाशन व वीडियो अपलोडिंग।
*11* सम्मान ,पुरस्कार व अलंकरण।
लगभग 600 से अधिक , भौतिक व डिजिटल प्रमाण पत्र प्राप्त।पुरुस्कार।ट्रॉफी।मैडल विभिन्न साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं द्वारा प्रदत्त।
*12*. अन्य उपलब्धियां: 
दूरदर्शन, आकाशवाणी, बरेली, रामपुर से प्रसारण।
ऑन लाइन कवि मंचों का संचालन आदि। बरेली में अनेक कवि गोष्ठीयों का संचालन।
उत्तर प्रदेश बुक ऑफ रिकॉर्डस में नाम दर्ज।ट्रॉफी प्रमाण पत्र प्राप्त।
संस्थापक अध्यक्ष।पीलीभीत मिड टाऊन जेसीस।वर्ष1986।
1988 वर्ष। उत्तर प्रदेश राज्य जेसीस उपाध्यक्ष।
1990। उ प राज्य जेसीस प्रशिक्षक।
संस्थापक अध्यक्ष
सेवा निर्वत एस बी आई अधिकारी सामाजिक क्लब।बरेली।2016 से 2018(वर्तमान में सरंक्षक पद पर आसीन)
जिलाध्यक्ष।भारतीय हिंदी सेवा पंचायत।बरेली।2020 से 2023।
वरिष्ठ उपाध्यक्ष।संस्कार भारती।बरेली
उपाध्यक्ष।सक्षम संस्था।बरेली
संयुक्त सचिव।मानव सेवा क्लब। बरेली
पूर्व सचिव।वरिष्ठ नागरिक कल्याण समिति।बरेली
कई अन्य साहित्यिक संस्थाओं में पदाधिकारी।
21 अगस्त 2020 को बरेली वरिष्ठ नागरिक सामाजिक क्लब।बरेली की स्थापना।
03 सितंबर को विश्व जन चेतना ट्रस्ट
भारत के जय जय हिंदी बरेली मंडल
प्रखंड की स्थापना तथा बरेली जिले व
मंडल के अध्यक्ष के रूप में मनोनयन।
लगभग 24 व्हाट्सएप ग्रुप के समूह नियंत्रक।
जिला विज्ञान क्लब बरेली के नियमित 
निर्णायक मंडल के सदस्य।
2019 में अन्य बैंक सामाजिक क्लब की स्थापना बरेली में सहयोग प्रदत।
सेवा काल में राजभाषा प्रतियोगिता में
30 से अधिक पुरुस्कार प्राप्त।
*12(अ)* विशेष अभिरुचि। बचे हुए अथवा बेकार सामान से विभिन्न प्रकार के हैंडिक्राफ्ट बनाना।
क्विज़। सभी प्रकार की क्विज स्वयं बनाना व
क्विज का संचालन/आयोजन करना।
*13*. संप्रति: सेवा निर्वत प्रबंधक।भारतीय स्टेट बैंक।बरेली।वर्ष 2010..........
चीफ आफ इंटरव्यू बोर्ड। महेंद्रा बैंक कोचिंग।बरेली।वर्ष 2011 से 2017 तक।
*14*. मोबाइल संख्या: 9897071046
8218685464
*15* . व्हाट्सप्प संख्या : 9897071046
*16*. ई मेल : kapoorsk32@gmail.com
Skkapoor5067@ gmail.com

।।हर दिन इक़ नया संग्राम
है जिन्दगी।।
।।विधा।।मुक्तक।।
1
बस सुखों का  ही आराम
नहीं है जिंदगी।
दुःखों का ना नामोनिशान
नहीं है जिंदगी।।
संघर्षों का   दाम वसूलती
भी ये जिंदगी है।
गमों पर     लगा    विराम
नहीं है जिंदगी।।
2
ऐशो आराम का तामझाम
नहीं है  जिंदगी।
खाली खुशियों का पैगाम
नहीं है जिंदगी।।
कभी   खुशी   कभी  गम
का ही नाम यह।
कोशिशों का   ही  मुकाम
है यह   जिंदगी।।
3
हर सुख का    मिला जाम
नहीं है जिंदगी।
बस    यूँ    ही      गुमनाम 
नहीं है जिंदगी।।
संघर्ष की   आग   पर  तप
कर बनता है सोना।
बसअपने स्वार्थ से ही काम
नहीं है जिंदगी।।
4
सुख दुःख का छाया   घाम
है यह    जिंदगी।
हर दिन इक़   नया   संग्राम
है यह   जिंदगी।।
अपने लिए   नहीं   दूजों के
लिये भी जीना यहाँ।
सरोकारों का     चारों  धाम
है  यह   जिंदगी।।

रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"
बरेली।।।।
मोब।।।।।      9897071046
                    8218685464

।।हमारे बुजुर्ग।।दुआओं की
सौगात है, बुजुर्गों के पास।।
।।विधा।।मुक्तक।।
1
क्षमा दुआ अनुभव और  आस,
है बुजुर्गों    के  पास।
बहुत ही  जिम्मेदारी  अहसास,
है बुजुर्गों   के  पास।।
छोटे बड़ों का ध्यान   और करें, 
घर की रखवाली  भी।
संस्कृति,  संस्कारों  का वास है,
बुजुर्गों        के  पास।।
2
बहुत  दुनिया    देखी   बड़ों  ने,
उनसे  ज्ञान    लीजिये।
उन्होंने  किया    लालन  पालन,
उन पर   ध्यान  दीजिए।।
उनके मान सम्मानआशीर्वाद से,   
संवरताआपका भी भाग्य।
आ जाता  कुछ  चाल   में  अंतर, 
नही   अपमान   कीजिये।।
3
हर किसी  के लिए खूब जज़्बात,
हैं   बुजुर्गों    के  पास।
अनुभवों की   इक लंबी    बारात, 
हैं बुजुर्गों     के   पास।।
दिल है   दिमाग है     हर  बात है,
पास    बुजुर्गों      के।
दुआओं ही दुआओं की   सौगात,
है    बुजुर्गों  के   पास।।
4
पैसे की   तो      बहुत    कदर  है,  
बुजुर्गों     के    पास।
बहुत ही ज्यादा   पारखी नज़र है,
बुजुर्गों    के     पास।।
रखते  तजुर्बा हर मौसम  बरसात,
का    बुजुर्ग     हमारे।
एक पूरी   जिन्दगी  का   सफर है,
बुजुर्गों    के     पास।।

रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"
बरेली।।
मोब।।            9897071046
                     8218685464


*।।समाज,राष्ट्र का सजग*
*सतर्क प्रहरी,पत्रकार।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
कभी मीठा तो कभी
चीत्कार लिखता है।
कभी विपक्ष  कभी
सरकार लिखता है।।
कलम का  सिपाही
रुकता नहीं   कभी।
हर बात   वह    तो
बार बार लिखता है।।
2
कभी आरपार कभी
कारोबार लिखता है।
कभी विसंगति और 
प्रचार लिखता    है।।
समाज राष्ट्र  के  हर
बिंदु को छूती कलम।
हर विषय की    वह
भरमार   लिखता है।।
3
कभी ओज तो कभी
श्रृंगार     लिखता है।
कभी खिजा   कभी
बहार     लिखता है।।
खुशी गम के     हर
पहलू को  छूता  वो।
कभी जीत तो कभी
हार    लिखता     है।।
4
कभी व्यंग तो कभी
सरोकार लिखता है।
कभी शांति    कभी
अंगार लिखता   है।।
छू जाती है  कलम
दिल को       कभी।
जब भावनाओं का
संसार  लिखता  है।।
5
सब पढ़ते हैं कि वो
जोरदार लिखता है।
कभी दबके या बन
सरदार लिखता  है।।
हर हालात  को  वो
लिखता समझ कर।
सब कोई और नहीं
पत्रकार लिखता है।।
*रचयिता।। एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।         9897071046
                    8218685464


4- *।।ग़ज़ल।। संख्या  107 ।।*
*।।काफ़िया।। मक/नक।।*
*।।रदीफ़।। दवा बन जाये।।*
1
ऐसा हो  जख्म की नमक दवा बन जाये।
ऐसा हो आँखों की चमक दवा बन जाये।।
2
जख्म दिल के भर जायें बस मीठे बोल से।
बस दर्द की धमक ही कोई दवा बन जाये।।
3
बात पीछे छूट जाये   दिमागी तनाव की।
जिन्दगी की जनून ए रमक दवा बन जाये।।
4
सोच बनेआदमी के दिल की इतनी अच्छी।
चेहरे का तेजओ दमक ही दवा बन जाये।।
5
हंस कुछ ऐसा हो कि बेमेल भी मेल ही लगे।
हार जीत की  सनक भी दवा बन जाये।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।   9897071046
                 8218685464


5- ।।रचना शीर्षक।।*
*।। पहले बिखर कर ही आदमी*
*फिर निखर कर आता है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
आशा का   दीप  सदा
जलाये रखना।
प्रभु में     आस्था सदा
बनाये रखना।।
कभी   मंद      ना पड़े
उम्मीद की लौ।
काम में    लगन   सदा
लगाये रखना।।
2
कभी      संवेदना   का
साथ   छूटे ना।
विश्वास का      कदापि
हाथ    छूटे ना।।
अधीरता        हो    पर
जमीर जिंदा रहे।
तरकश  से     अनुचित
वाण छूटे ना।।
3
नैतिकता   की   लकीर
मिटने ना पाये।
दिल से दूसरों   की पीर
मिटने ना पाये।।
संघर्ष रहे  और    शक्ति
रहे  लड़ने  की।
दुखों में  भी     कर्मवीर
मिटने ना  पाये।।
4
कठिन परिश्रम    ही  तो
आत्मबल लाता है।
तपिश में तपकर  व्यक्ति
सोना बन पाता है।।
उत्साह उमंग   जीवन में
मंद ना हो     कभी।
बिखर कर  ही    आदमी
निखर कर आता है।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।।    9897071046
                    8218685464

प्रो0 शरद नारायण खरे

काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार

(1)नाम----प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
(2)जन्म- 25-09-1961
(3) शिक्षा-एम.ए(इतिहास)(मेरिट होल्डर),एल-     एल.बी,पी-एच.डी.(इतिहास) 
(4)व्यवसाय----शासकीय सेवा,  
प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष इतिहास/प्रभारी प्राचार्य
कार्यालय----शासकीय जे.एम.सी.महिला महीविद्यालय,मंडला(म.प्र.)
(5)प्रकाशित रचनाएं व गतिविधियां --
*चार दशकों नें देश के पांच सौ से अधिक प्रकाशनों व विशेषांकों में दस हज़ार से अधिक रचनाएं प्रकाशित 
*गद्य- पद्य में कुल 20 कृतियां प्रकाशित (चुभन,हक़ीक़त,विवेचना के स्वर,अनुभूतियाँ,कसक आदि)
*प्रसारण-----रेडियो(38 बार),भोपाल दूरदर्शन (6बार),ज़ी-स्माइल,ज़ी टी.वी.,स्टार टी.वी., ई.टी.वी.,सब-टी.वी.,साधना चैनल से प्रसारण ।
*संपादन---9 कृतियों व 8 पत्रिकाओं/विशेषांकों का सम्पादन ।
*विशेष---सुपरिचित मंचीय हास्य- व्यंग्य कवि, संयोजक,संचालक,मोटीवेटर,शोध- निदेशक,विषय विशेषज्ञ,रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के इतिहास विभाग के अध्ययन मंडल के तीसरी बार व शासकीय पी.जी.ओटोनॉमस कॉलेज, छिंदवाड़ा इतिहासअध्ययन मंडल के सदस्य ।   
एम.ए.इतिहास की पुस्तकों का लेखन
150 से अधिक कृतियों में प्राक्कथन/ भूमिका का लेखन ।
300 से अधिक कृतियों की समीक्षा का लेखन
राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में160 से अधिक शोध पत्रों की प्रस्तुति
सम्मेलनों/ समारोहों में 350 से अधिक व्याख्यान 
300 से अधिक कवि सम्मेलन ।
475से अधिक कार्यक्रमों का संचालन ।
सम्मान/अलंकरण/ प्रशस्ति पत्र------देश के लगभग सभी राज्यों में 700 से अधिक सारस्वत सम्मान/ अवार्ड/ अभिनंदन ।सर्वप्रमुख अवार्ड--- म.प्र.साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी अवार्ड(51000/ रु)।
संपर्क/वर्तमान पता-आज़ाद वार्ड-चौक,मंडला,मप्र,
मो.9425484382
========================

(1)
प्रकाश का गीत
-----------------------
अँधियारे से लड़कर हमको,उजियारे को गढ़ना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!

           पीड़ा,ग़म है,व्यथा-वेदना,
             दर्द नित्य मुस्काता
            जो सच्चा है,जो अच्छा है,
             वह अब नित दुख पाता

किंचित भी ना शेष कलुषता,शुचिता को अब वरना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!

           झूठ,कपट,चालों का मौसम,
          अंतर्मन अकुलाता
          हुआ आज बेदर्द ज़माना,
            अश्रु नयन में आता

जीवन बने सुवासित सबका,पुष्प सा हमको खिलना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!

              कुछ तुम सुधरो,कुछ हम सुधरें,
               नव आगत मुस्काए
               सब विकार,दुर्गुण मिट जाएं,
             अपनापन छा जाए

औरों की पीड़ा हरने को,ख़ुद दीपक बन जलना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!
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2- गीत
=======
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की
बढ़ रही है रोज़ ही,आफ़त यहाँ इंसान की

न सत्य है,न नीति है,
बस झूठ का बाज़ार है
न रीति है,न प्रीति है,
बस मौत का व्यापार है
श्मशान में भी लूट है,दुर्गति यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की।।

बिक रहीं नकली दवाएँ,
ऑक्सीजन रो रही
इंसानियत कलपे यहाँ,
करुणा मनुज की सो रही
ज़िन्दगी दुख-दर्द में,शामत यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की।।

हो रहे लाशों के ठेके,
मँहगा है अब तो कफ़न
चार काँधे भी नहीं हैं,
रिश्ते-नाते हैं दफ़न
साँस है व्यापार में पीड़ित यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की।।

जोंक बन अब आदमी,
चूसता नित ख़ून है
भावनाएँ बिक रही हैं,
हर तरफ तो सून है
बच सकेगी कैसे अब,क़ीमत यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही क़ीमत यहाँ इंसान की।।
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      3-    समकालीन गीत
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रोदन करती आज दिशाएं,मौसम पर पहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो,घाव बहुत गहरे हैं !!

बढ़ता जाता दर्द नित्य ही,
संतापों का मेला
कहने को है भीड़,हक़ीक़त,
में हर एक अकेला

रौनक तो अब शेष रही ना,बादल भी ठहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे वो,घाव बहुत गहरे हैं !!

मायूसी है,बढ़ी हताशा,
शुष्क हुआ हर मुखड़ा
जिसका भी खींचा नक़ाब,
वह क्रोधित होकर उखड़ा

ग़म,पीड़ा औ' व्यथा-वेदना के ध्वज नित फहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं !!

व्यवस्थाओं ने हमको लूटा,
कौन सुने फरियाद
रोज़ाना हो रही खोखली,
ईमां की बुनियाद

कौन सुनेगा,किसे सुनाएं,यहां सभी बहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे है वो घाव बहुत गहरे हैं !!

बदल रहीं नित परिभाषाएं,
सबका नव चिंतन है
हर इक की है पृथक मान्यता,
पोषित हुआ पतन है

सूनापन है मातम दिखता,उड़े-उड़े चेहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं !!
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4- समसामयिक गीत
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दिल छोटे,पर मक़ां हैं बड़े,सारे भाई न्यारे !
अपने तक सारे हैं सीमित,नहीं परस्पर प्यारे !!

       दद्दा-अम्मां हो गये बोझा,
        कौन रखे अब उनको
        टूटे छप्पर रात गुज़ारें
        परछी में हैं दिन को

हर मुश्किल से दद्दा जीते,पर अपनों से हारे !
अपने तक सीमित हैं सारे,नहीं परस्पर प्यारे !!

          मीठा बचपन भूल चुके सब,
          वर्तमान की बातें
           दौलत,धरती,बैल-ढोरवा,
            की ख़ातिर आघातें

अपनी करनी से बेटों ने,फैलाये अँधियारे !
अपने तक सीमित हैं सारे,नहीं परस्पर प्यारे !!

             खेत सिंच रहे,पर दिल सूखे,
               जगह-जगह हरियाली
              रिश्ते तो अब रिसते हर दिन,
               रची अमावस काली

कोर्ट-कचहरी रोज़ाना ही,ह्रदय-मुकदमे हारे  !
अपने तक सीमित हैं सारे,नहीं परस्पर प्यारे !!

              बिलख रहीं चौपालें अब तो,
             नीम खड़ा रोता है
            पीपल वाला मंदिर भी तो,
          रोज़ श्राप देता है

आज वक्त की इस देहरी पर,सब करनी के मारे !!
अपने तक सीमित हैं सारे,नहीं परस्पर प्यारे !!


               ---प्रो.शरद नारायण खरे

डॉ. सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी - काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार

काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार
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संक्षिप्त परिचय
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नाम - डॉ. सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी
जन्म तिथि - 11 . 10 . 1955
शिक्षा - एम . ए. ( हिन्दी , संस्कृत ), बी . एड . , पी - एच . डी. , डी . लिट्. ( विद्या सागर ) - मानद ।
प्रकाशित साहित्य - 11 ( ग्यारह पुस्तकें ) ।
अनेक पुस्तकें प्रकाशनाधीन एवं अप्रकाशित ।
देश की विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन से प्रसारित ।
सम्मान - देश / विदेश की अनेक साहित्यिक , सामाजिक , सांस्कृतिक संगठनों द्वारा लगभग 90 ( नब्बे ) प्रशस्ति पत्रों , प्रतीक चिन्हों आदि से सम्मानित / पुरस्कृत ।
उत्तराखंड माध्यमिक शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन तथा साहित्यिक / सामाजिक / सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय  सहभागिता ।
पत्र व्यवहार का पता -
डॉ. सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी
ग्राम / पो. पुजार गाँव ( चन्द्र वदनी )
द्वारा - हिण्डोला खाल
जिला - टिहरी गढ़वाल - 249122 ( उत्तराखंड )
मोबाइल नंबर - 9690450659
ई मेल आईडी -
dr.surendraduttsemalty@gmail.com 
  
  1-            " कविता "
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साहित्य की ऐसी विधा है कविता ,
आसमान  मे जैसे  होता सविता ।

कविता  मे  होते  हैं  गुण  अनेक ,
आश्चर्य  होता  है  जिनको   देख ।

भावोंमे मेघ सी छा जाती कविता ,
चमकत गरजती बरसती कविता।

कविता   चिड़िया  सी   चहकती ,
प्रातः काल  फूलों  सी   महकती ।

मोर   पक्षी   सा   नृत्य   दिखाती ,
भूगोल इतिहास विज्ञान सिखाती ।

रात  क्यों  चमकते  चाँद- सितारे ,
दिन  मे  क्यों  नहीं  दिखते  तारे ?

कविता  उत्तर  देती  इन  सबका ,
बहुत  बड़ा  विज्ञान  है  जिनका ।

कविता  नैतिकता   पाठ  पढ़ाती ,
उन्नति  की   ओर   सदा  बढ़ाती ।

कविता   याद   कराती   पल  मे ,
सैर  कराती   नभ  थल  जल  मे ।

नवरस मात्रिक वर्णिक  जो छन्द ,
कविता के अन्दर रहते सब बन्द ।

सजता अलंकारों से कविता  तन ,
पढ़कर खुश  होता  सबका  मन ।

शब्द   एक   और  अनेक   अर्थ ,
कोई  भी  नहीं   होता  है   ब्यर्थ ।

रचते कविता  जो भी  कवि गण ,
प्रेरणा  -  शिक्षा   होता  है   प्रण ।

कविता सभी  रसों  का  भण्डार ,
मन   करता  पढ़ें  हम  बारम्बार ।

नर  नारी वृद्ध जवान  या  बच्चा ,
ज्ञान  कराती यह सबको अच्छा ।

जीने की  यह  कला  सिखलाती,
सबको  अच्छी  राह  दिखलाती ।

पहले  मन  मे  उमड़ती  कविता ,
फिर  कागज मे बरसती कविता ।

करती  है  मन  के  तम  को  दूर ,
मनोरंजन-शिक्षा से  होती भरपूर ।


2-  बाल कविता

    " मम्मी जैसा होता कौन ? "
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मम्मी  जैसा   होता  कौन ?
पूछा तो  सबके सब  मौन ! 

सचमुच मे  माँ  होती ऐसी ,
और नहीं  कोई  उस जैसी !

नौ महीने का कठिन सफर ,
तय   करती  है जननी  हर ।

अपना सुख-दुःख सबभूल ,
समझती है शिशु अनमोल ।

पालन - पोषण मे  तल्लीन ,
रहती  धनी  हो  चाहे  दीन ।

माँ जब  काम से घर आती ,
बच्चे से  तब मन  बहलाती ।

देख थकान  फुर्र  हो जाती ,
अपने  भाग्य पर  इठलाती ।

शिक्षा-संस्कार  की आधार ,
करती है  सबकी नय्या पार ।

माँ का सब पर  होता कर्जा ,
सबसे  ऊँचा  इसका   दर्जा ।

कभी न  माँ को  जायें  भूल ,
चरणों मे  सदा चढ़ायें  फूल ।

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3-  बाल कविता 
                   " प्रातः काल "

मुर्गे  ने   जब  बाँग  लगाई  ,
हम बच्चों की  नींद भगाई ।

चिड़ियों ने भी  छेड़ी  तान  ,
भौंरे  गुन - गुन  गाये  गान ।    

दुम   दबाकर   भागे   सारे  ,
जितने  भी  थे   छाये  तारे ।

सूरज  बोला  आ  गये  हम  ,
भाग  चुका  था  गहरा  तम ।

छाई   लाली  हुआ  उजाला  ,
घटता   गया   ओस - पाला ।

तितलियाँ थी  फूलों के संग  ,
मनमोहक  था  जिनका रंग ।

हमनें  शौच   किया   स्नान  ,
लगाया तब  देवों का ध्यान ।

पढ़ाई से  पहले  योग-ध्यान ,
बढ़ाया  इनसे  अपना  ज्ञान ।

बस्ता  लेकर के  गये  स्कूल ,
शिक्षा-संस्कार  का जो मूल ।


4-  बाल कविता - " आँसू "
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आँसुओं  का  भी   क्या  कहना  ,
बड़ा  कठिन  है  इन्हें  समझना !

आता  जब   दुख  का  अम्बार , 
सहन न कर सकती आँखें भार ।

गिराती   इन्हें   धरा  पर   नीचे ,
कहानी होती  हर एक के पीछे ।

आँसू खुशी मे भी  हैं  छलकते ,
भाव  खुशी के  स्पष्ट  झलकते ।

इनके पीछे छिपा होता विज्ञान ,
ए  बनते  कैसे  बच्चे  लें  जान ।

बहकर आँसू सुख -दुख कहते,
इन्हें   देखकर   और  समझते ।

5- बाल कविता -" मोबाइल "
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बहुत   उपयोगी   है  मोबाइल ,
जीत चुका है यह सबका दिल ।

हरपल   रखते    अपने   पास   ,
इस पर सबसे अधिक विश्वास।

अनेक  सुविधाओं  से  भरपूर ,
कराता   बात   बहुत   है   दूर  ।

कार्यक्रम   गतिविधियाँ   सब ,
दिखाता   है   मोबाइल   अब  ।

कल्कुलेटर     टार्च      कैमरा ,
इसके  अंदर  सबकुछ है भरा ।

इण्टरनेट   आँनलाइन   काम  ,
मनोरंजन अनेक रखे हैं थाम ।

मोबाइल  बन  चुका  है  अंग ,
उसके सब काम करवाते दंग ।

हर  पल  रहता  सबके  साथ ,
करवाता  रहता  सबसे  बात ।

नेटवर्क   यदि  करे   न  काम ,
तब सिम हो जाता है बदनाम ।

बहुत काम इससे होते आसान ,
बन गया  यह  दुनियां की शान ।

इसका  सही  उपयोग करें सब ,
मिलते हैं सारे लाभ  इससे तब ।

जो जन  गलत प्रयोग हैं  करते ,
बिना  मौत  के  मानों  वे  मरते ।

बच्चों  के  जितने  भी  खिलौंने ,
मोबाइल   के  आगे  सब   बौंने ।

उछलना  -  कूदना   और  हँसी ,
मोबाइल   के   अन्दर  हैं  बसी ।

बाहर     घूमना      सगे   साथी ,
ए   सब   लगते  सफेरद   हाथी ।

तर्जनी   उँगली   कोमल   हाथ ,
मोबाइल  पर  घूमते  दिन-रात ।

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ग्राम / पो . पुजार गाँव(चंद्र वदनी) 
द्वारा- हिण्डोला खाल
जिला- टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड)- 2449122
मोवाईल नं .- 9690450659
ई मेल - 
dr.surendraduttsemalty@gmail.com

लता विनोद नौवाल - काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार

काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार

1- श्री गणेशाय नमः
एकदंताय  विशालकाय 
विद्या बुद्धि प्रदायक 
गुणों के ईश 
विघ्न विनाशक देवाय नमः 
सबसे पहले आपकी पूजा
 बाद में होगा काम कोई दूजा
 संकट हरता मंगल दाता 
दीन दुखियों के भाग्य विधाता
 दूर करें विघ्न चिंता क्लेश 
आप की महिमा अमिट अशेष सकल सुमंगल मूल
 जीवन सुख शांति दो 
सदा रहो अनुकूल
   - लता विनोद नौवाल


 2- तेरे चरणों में जब शीश झुका
मेरा रोम रोम हरसाया
हे प्रभु जिसदिन इन आँखों नें 
तेरी एक झलक बस पाया
मेरा मन खोया तेरी गलियों में
तन होगया ज्यों बरसाना
प्रभु तुझे छोड़ नही जाना.......

१) हे श्याम तेरी मैं विरहन हूँ 
भटकूँ तुझ बिन मैं वन वन हूँ
आशा के बुझते दीपक को 
प्रभु अब रोशन कर जाना ।

२) मैं जनम जनम की प्यासी हूँ
शबरी जैसी तेरी दासी हूँ
मैं बन बैठी जोगन तेरी
प्रभु मुझको भी अपना लेना

३) तू तो करुणा का सागर है ।
रीता ह्रदय का गागर है ।
नैनों को दर्शन देकर के 
ह्रदय की प्यास बुझा जाना


3- Lyrics: Lata Vinod Nowal

तेरे प्रेम का रंग है न्यारा रे 
सारा जग ही लगे अब प्यारा रे 
हर ओर है अब उजियारा रे 
मोहे सुध न रही दिन रैन की 
मोहे सुध न रही दिन रैन की   

कान्हा से न रह गई कोई दूरी रे 
अधजल गगरी आज हुई है पूरी रे 
नाँचू ओढ़ चूनर सिंदूरी रे 
बुझी प्यास जो मन बेचैन की 
मोहे सुध न रही दिन रैन की 

पी की हो गई रही न अब दुखियारी रे 
पल में काट के रख दी दुविधा सारी रे 
चली ऐसे जिया पे कटारी रे 
मोहन तेरे सुन्दर नैन की 
मोहे सुध न रही दिन रैन की     

प्रीत की डोर अब तो ये टूटे नहीं 
मेरे माधो रंग तेरा छूटे नहीं 
सांस टूटे लगन मेरी छूटे नहीं 
तेरे मधु से मीठे बैन की 
मोहे सुध न रही दिन रैन की


4- डसती है ये काली रतिया, और बैरन तन्हाई 
मोहे याद पिया की आई। 
पिया से मिलन की आस में पगली ये आँखें भर आई 
 मोहे याद पिया की आई।   

१) बालों में गजरा सूख गया है, साजन (प्रीतम) मोसे रूठ गया है। 
कंगन चूड़ी खनकत नाही, अब तो आ जा प्यारे माही।।
रुत सावन की आई, मोहे याद पिया की आई 

२) तारे गिन गिन रैन बिताऊं, दिल को कैसे मैं समझाऊँ। 
नैनों से निंदिया उड़ गई है, मेरी दुनिया उजड़ गई है।।
लौट के आ हरजाई, मोहे याद पिया की आई

5- मैं हूं प्रेम दीवानी 
सखी री, मैं हूं प्रेम दीवानी!
 कोई समझे ना कोई जाने ना,
 तू भी रही अनजानी!!
 सूरत उसकी इतनी मोहनी,
 रंगत श्याम सलोनी 
बिन देखे अखियां न मानी, 
मंद मंद मुस्कानी!!
ऐसो कर दियो
 मुझ पर जादू 
हो गई मैं मस्तानी
 प्रेम रंग में लता रंग गई 
सुध बुध भी न जानी !
सखी री, मैं हूं प्रेम दीवानी 
  लता विनोद नौवाल

श्रीमती लता विनोद  नौवाल
राष्ट्रीय महासचिव इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल नई दिल्ली कवयित्री होने के साथ-साथ एक समाज सेविका भी हैं दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज से हिंदी ऑनर्स की पढ़ाई की संस्कृत मे 1 साल का कोर्स किया 1980 में 16 साल की उम्र में पहली हास्य व्यंग्य की कविता क्रिकेट कविताएं पुस्तक प्रकाशित हुई जिसकी काफी सराहना हुई दूसरी किताब बोल उठा मन एवं तीसरी किताब आशनाई  जिसका विमोचन  8 मार्च को  पदम  श्री सुरेंद्र शर्मा जी ने किया, 
              उनके संपादन में चार किताबें छपी है, दो किताबें रामायण पर आधारित हैताकि आज की युवा पीढ़ी रामायण के पात्रों के बारे में जान सके  
   श्रेष्ठ कवियों के साथ मंच पर कविताएं पढ़ना, श्री विश्वनाथ सचदेवा जी, नौटियाल जी, डॉ राम मनोहर त्रिपाठी जी, नंदलाल पाठक जी, सुरेंद्र शर्मा आदि के साथ काव्य पाठ किया प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं छपती रहती हैं बोल उठा मन का कन्नड़ में भी अनुवाद हुआ। 
             इनरव्हील क्लब के अध्यक्ष पद पर  भी रही, और उनके अच्छे कार्यों के लिए उन्हें सुप्रीम स्वर्ण पदक अवार्ड मिला। 
             राष्ट्र के प्रहरी राष्ट्र सेना में समर्पित सैनिकों तथा उनके परिवार को कोटि-कोटि नमन करते हुए जो योद्धा वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं वह समय उनके परिवार के लिए अत्यंत दुखदाई होता है कठिनाई भरा होता है कर्नाटक में उनके लिए जेएसडब्ल्यू फाउंडेशन से से मिलकर एक संस्था बनाई जिसमें 400 परिवार रजिस्टर किए गए जिसके तहत सैनिकों को एक हीरो का सम्मान देना  उनके परिवार को कॉलोनी में बुलाना एक एक्सपर्ट को बुलाकर उनकी जो कानूनी समस्याएं होती है उन को सुलझाने की  कोशिश होती है उनके व उनके बच्चों के रोजगार की समस्या सुलझाने की काफी प्रयास किया जाता है
     सैनिकों को हीरो की दर्जा दिलवाना मकसद है उनका जो हमारे देश के सच्चे हीरो हैं। 
     30 साल बाद वह अपने गांव गई वहा 2280 मेगा वाट का लड़कियों के स्कूल में सोलर सिस्टम दिया वहा लाइट नही रहती ताकी वह अच्छे से पढाई कर सके 
      हर आदमी को सुधरने का एक मौका मिलना चाहिए  इसके तहत लता नौवाल ने अपना जन्मदिन कैदियों के साथ मनाया  और उन्हें योगा की ट्रेनिंग भी दी गई लगातार  जिससे सकारात्मक असर उनके दिमाग पर पडे, 
   देश के सभी भाषाएं एक दूसरे के पूरक हैं   सभी भाषाओं का सम्मान होना चाहिए, इसके लिए कन्नड़, हिंदी कवयित्री सम्मेलन किया गया, 
          सबसे बड़ी म्यूजिक कंपनी T-series से  सूफी गीत एवं भजन रिलीज होते रहते हैं, उनके गीत जावेद अली एवं साधना सरगम जी ने गाए, जो बहुत फेमस हुआ तस्वीर उनकी मेरे दिल में उतर गई, एक चैनल LV sound भी है जिसमे जिसमें तीन लाख से भी ज्यादा फॉलोवर्स हैं।

कवियत्री समाज सेविका 
राष्ट्रीय महासचिव इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल नई दिल्ली 
लता विनोद नौवाल

काव्यरंगोली आज के सम्मानित कलमकारडॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी

डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी 



आत्मज -श्रीमती पूनम देवी तथा श्री सन्तोषी  लाल त्रिपाठी

 

जन्मतिथि .१६ जनवरी १९९१

 जन्म स्थान. हेमनापुर मरवट, बहराइच ,उ.प्र.

शिक्षा- एम.बी.बी.एस. ,

                   एम. एस. जनरल सर्जरी(द्वितीय वर्ष छात्र)


 पता.- रूम न. 8,  100 पीजी ब्वायज हास्टल ,बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज गोरखपुर,उ.प्र. 

प्रकाशित पुस्तक - तन्हाई (रुबाई संग्रह)


 उपाधियाँ एवं सम्मान - साहित्य भूषण (साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी ,परियावाँ, प्रतापगढ़ ,उ. प्र.द्वारा)


 शब्द श्री (शिव संकल्प साहित्य परिषद ,होशंगाबाद ,म.प्र.) द्वारा

श्री गुगनराम सिहाग स्मृति साहित्य सम्मान, (गुगनराम सोसायटी भिवानी ,हरियाणा द्वारा)

अगीत युवा स्वर सम्मान २०१४( अ.भा. अगीत परिषद ,लखनऊ द्वारा)

 पंडित राम नारायण त्रिपाठी पर्यटक स्मृति नवोदित साहित्यकार सम्मान २०१५, (अ.भा.नवोदित साहित्यकार परिषद ,लखनऊ द्वारा)

जय विजय रचनाकार सम्मान(गीत विधा)2019 , जय विजय हिंदी मासिक वेब पत्रिका द्वारा।

इसके अतिरिक्त अन्य साहित्यिक ,शैक्षणिक ,संस्थानों द्वारा समय समय पर सम्मान । पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन तथा काव्य गोष्ठियों एवं कवि सम्मेलनों मे निरंतर काव्यपाठ ।


१.(गीत)


उर में अवसाद है ।


चाँदी सी शुभ्र रात  

हवा भी मचल रही है।

नदिया के तन पे,धवल-

चाँदनी फिसल रही है।


पूर्ण प्रकृति, रिक्त हृदय ,

कैसा  अपवाद  है। ?


उर में अवसाद.........


नैनों  में  बाढ़  हुई ,

उर मे पतझार हुआ।

टूट चुके सपनों को ,

पीड़ा से प्यार हुआ ।


मौन हुए ,गीतों का ,

निष्फल  संवाद है ।


उर में अवसाद ...।


कोयल की कुंजन से,

भौरों   के  गुंजन  से ।

एक नव बसंत हुआ,

महक चली उपवन से।


जल भुन बैठा जवास ,

चहुँ  दिशि  उन्माद है ।

उर में अवसाद.......



२.(गीत)


क्षितिज तीर पीड़ा के गहरे से चित्र हुए ,

ज्यों ज्यों गहराने लगी, जाड़ों की रात है।


अल्पायु दिन बीता ,लंबी  सी  रात  हुई ।

ठिठुर गयें पेड़ों से,शीत की बरसात हुई।


घाम और कुहरा जब आपस में मित्र हुए,

सूरज बिन गायब अब सर से जलजात है।

क्षितिज तीर .........................


कुत्तों की कुकुराहट ,हूँकते सियारों से।

निष्ठुर सी रात हुई , हिम भरी बयारों से।


भटकी सी लोमड़ी के हाल भी विचित्र हुए,

कौं-कौं कर ढूँढ रही बिल नही सुझात है ।

क्षितिज तीर.........................



बलवती बयार हुई, कथरी कमजोर लगे ।

हर तरफ से सेंध करे ,जाड़ा एक चोर लगे।


अतिथि कलाकार सरिस धूप के चरित्र हुए,

पता नही कब आये,कब ये चली जात है।

क्षितिज तीर.............................



३.(गीत)


कोशिशें बहुत करीं पर  ,कुंभकरण जागे नही ।

अंत में परिणाम आया ,ढाक के बस तीन पात।


देकर के आसरा हर बार वो टरकाते  रहे ।

तब भी हम ऊसर में बीज नित बहाते रहे।

भैंसो के आगे हम बीन  भी   बजाते  रहे ।

बहरों के आगे हम  मेघ  राग  गाते    रहे ।


फिर हमने जाना बाँझ जाने क्या प्रसव की बात।

अंत में परिणाम आया...........................।


कुर्सियों कें खटमल,मोह खून का न छोड़ सके।

पीड़ा के व्यूह का एक द्वार भी  न  तोड़  सके।

अंहकार  पद  का  था ,रास्ते  भी  भटक  गये ,

मोड़ने चले थे धार,नाली तक न  मोड़  सके ।


बुझा  के  मशाल  बने  चोर, देख काली  रात ।

अंत में परिणाम आया.........................।


अपनी तो पीर  हुई, गैर   की   तमाशा  है ।

शासन तिमिर का है ,दीप  को निराशा  है।

गिद्धों के अनुगामी, तंत्र  में  विराजमान,

लाशों की टोह करें, इस तरह पिपासा  है ।


उल्लुओं ने  राय रक्खी ,रोकों  भावी  प्रभात !

अंत में परिणाम..............................



४.(गीत)


पनपे कंकरीट के जंगल, बड़े मंझोले पेड़ काटकर,

पीपल की बरगद से  चाहकर  बात  नही  होती ।


सावन की पुरवैय्या सूनी ।

दादी की अंगनैय्या सूनी ।

सरिता का संगीत शोकमय,

बंधी घाट पर नैय्या सूनी ।


महुए की सुगंध से महकी रात नही होती ।

पीपल की बरगद.............................


कहीं खो गये कोयल ,खंजन।

दूर     हो  गये  झूले  सावन ।

उजड़ रहे वन बाग नित्यप्रति,

उजड़े धरती माँ का आँगन ।


अब कतारमय क्रौंचो की बारात नही होती।

पीपल की बरगद.........................


फीकी बारिश की बौछारें ।

धूमिल  रंग  धरा  के  सारे ।

अब मानव कृत्रिम में खुश है,

प्राकृतिक से किये किनारे ।


मलयज वायु सुरभित सुंदर प्रात नही होती ।

पीपल की बरगद से .......................


५.(गीत)



हृदय व्याकुल, नैन में घन-घोर,वो आये नहीं।

कोशिशें मैंने करी पुरजोर,वो आये नहीं ।


कोयलों ठहरों ,सुनो, मत गीत गाओ!

मधुकरों कलियों पें तुम मत गुनगुनाओं!

हो रहा है कर्णभेदी शोर, वो आये नहीं।

कोशिशें …………………….


भीड़ में दिन कट गया फिर, रात तनहा आ गई।

अंधेरे की एक चादर ,मेरे मन पे छा गई ।

कल्पनाएँ हो गई कमजोर,वो आये नही ।

कोशिशें…………………


गिन के तारे रात काटी ,चाँद बूढ़ा हो गया।

ओड़कर ऊषा की चादर,तिमिर देखो सो गया।

आ गया किरणों को लेके भोर, वो आये नहीं।

कोशिशें…………………………….


आ गया पतझार बूढ़ा,पात पीले हो गये ।

हो चुके बेरंग उपवन, देख मधुकर रो गये ।

टूटती साँसो की हर दिन डोर,वो आये नहीं ।

कोशिशें ……………

        

  © डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी

काव्यरंगोली आज का सम्मानित कलमकार रेनू बाला सिंह , गाजियाबाद ,उत्तर प्रदेश

 

*नाम*- रेनूबाला सिंह
*पता*-A-312 पार्श्वनाथ मैजेस्टिक फ्लोर्स इंदिरा पुरम,गाज़ियाबाद (यू.पी.)
२०१०१४
*शिक्षा*- बी.ए,ब्रिज कोर्स एम.ए (मध्यकालीन
इतिहास),बी.एड..
डिप्लोमा- होटल मैनेजमेंट
रुचि- योग, संगीत (गायन,वादन,नृत्य)
पठन-पाठन
*भाषा*- हिन्दी,भोजपुरी,अंग्रेजी

*शिक्षण-कार्य* केंद्रीय विद्यालय मालीगांव गुवाहाटी  में २ वर्ष
एडहाक शिक्षिका के रूप
में सेवारत।

*संस्कार वैभव हिन्दी सभा* नामक संस्था से सदस्य के रूप में स्वतंत्र लेखन का कार्य,कलरव  नामक पत्रिका में १०वर्षों से कविताएँ व लेख प्रकाशित हो रहे हैं।

*यू. एस. एम. पत्रिका*,गाज़ियाबाद में गत १२ वर्षों से *वंदना लेख,कविताएँ ,व्यंग* प्रकाशित हो रहे हैं।

*रेलवे महिला कल्याण संगठन* में *सचिव/अध्यक्षा* के पदों पर  दिल्ली सहित देश के विभिन्न शहरों में पच्चीस वर्षों तक गरीब महिलाओं एवं बच्चों के शिक्षण (प्रशिक्षण) *हस्तकला के विकास में समाज सेवा* का कार्य किया।
*कंटेनर कार्पोरेशन महिला कल्याण संगठन* में *सचिव* के पद पर रहते हुए प्रतिभावान बच्चों को पुरस्कृत किया।

*हुनर स्टार्ट-अप* सेमिनार आन एंटरप्रनारशिप- *प्रशस्ति पत्र*
बटोही साहित्यिक सांस्कृतिक व सामाजिक *प्रशस्ति पत्र*

*संस्कार वैभव हिन्दी सभा* में हिन्दी भाषा भारतीय संस्कृति व राष्ट्रीय एकता को समृद्ध बनाने के लिए *प्रशस्ति पत्र*

*लाइनेस क्लब अपराजिता*
इंदिरापुरम,गाज़ियाबाद में *सदस्य/ सचिव* पद पर
३ वर्ष तक कार्य किया।

इंदिरापुरम  में  पिछले १० वर्षो से *योग शिक्षण* में सेवारत

*सलाम नमस्ते रेडियो स्टेशन ९०.४ एफ एम* पर नियमित रूप से आयोजित सम सामयिक   विषयों पर सहभागिता...

*खुदा को कर बुलंद इतना* सामयिक विषयों पर *वामा पत्रिका* में सहभागिता।

*प्रकृति के आस पास*
नामक काव्य संग्रह प्रकाशित।

वर्तमान समय में *आदिराजआफ डांस* स्कूल से संबद्ध।

धन्यवाद!🙏🙏

*तो समझो होली है।*

शीत ऋतु की हो विदाई ग्रीष्म रस रंग गंध इंद्रधनुष धरा पर जब रंगों की छटा बिखराए ,तो समझो होली है।

सुनहरी धूप में कोयल कूके किरणों संग मुस्काए  अमरैया बौराए, बेला चंपा चमेली हिना गुलदाउदी आंगन महकाए ,
तो समझो होली है।

मोगरा गुलाबों से गुलजार सजे फुलवारी औ' द्वार ,
मौसम बदले प्राकृतिक नज़ारे, नाचे मन जैसे मयूर तो समझो होली है।

बच्चे मुस्काए जवानों में जब दिखे तरुणाई और बूढ़े गदराए, उत्साह नटखट चुलबुलाहट मन में हिलोरें हुलसाए, तो समझो होली है।

बच्चे धूम मचाते रंग भर गुब्बारे, पिचकारी बाल्टी गलियों ढोल ,बाजे नगाड़े मृदंग मजीरे, बांसुरी भी खींचे लंबी लंबी तानें, तो समझो होली है।

नैनों से जब नैन मिले अधर देख मुस्काए ,गाल गुलाबी लाल, बिना रंगे बिखर जाए, प्रीत डोर खींच मन प्रियतम देख मदमस्त हो जाए, तो समझो होली है।

गुझिया, मालपुआ ,दही बड़ा सब मिल बैठ खाएं पूरी खीर और बताशे, भूलकर भी दुख गम गिले-शिकवे हो न, हमजोली सब गले मिले,
तो समझो होली है।

होलिका दहन, संग में बुराई घृणा नफरत की, देकर आहुति, जात पात कलह क्लेश दोष मिटा, होली मिलन की बात हो जहां,
तो समझो होली है।

दहलीज के भीतर बंद कमरों में छाई रहे खुशहाली प्रेम सौहार्द्र और स्नेहिल भाव से रंग जाए दुनिया सारी ,
तो समझो होली है

धन्यवाद

रेनू बाला सिंह

*पसरा कोरोना दोबारा*
           *होली में*

आंखों को कुछ तरेर कर

हथेली में गुलाल मल कर
चुलबुलाहट होने लगी है

पीछे से दोस्तों के छुप कर,
लाल करें गालों को रगड़ कर

मगर कैसे क्या करें  हम आज

मुश्किल हो गया जीने का अंदाज

ढोल नगाड़े बंद हैं सभी साज

सखियों में उमड़ा नखरा नाज़

अब होने लगी है मोबाइल पर, होली मिलन की बात

माना मुश्किल है हाथ से हाथ मिलाना

नामुमकिन भी है अब गले मिलना

दूरी बना मास्क लगा पालन
कर वैक्सीन लगा

गुलाल जब बादल बन उड़ा

फेसबुक व्हाट्सएप पर

रंगों की पिचकारी भर कर

कहीं होली गुलाल अबीर  भीगेगा नहीं शरीर पर

मन को सराबोर होने पर

रोक सकेगा न कोई
रोक सकेगा न कोई

धन्यवाद
रेनू बाला सिंह , गाजियाबाद ,उत्तर प्रदेश


201014

मंच को नमन🙏🙏
*बसंत ऋतु पर दोहे*

कोयल बैठी डार पर,
इत उत डोलत जाय ।
भंवरा गुंजत बाग में ,
पी  पराग  मद  होए।।

फूले अमवा बौराए
पुलकित मनवा होय ।
कोयल कूके गाए ,
बिरहनी बोली सुनाए।।

तितली डोलत बाग में,
उड़त फिरत झूमत है।
हंसी ठिठोली साथ में,
मन ही मन हंसत है।।

रेनू बाला सिंह

विधा- *कविता*
शीर्षक-- *नववर्ष इसे ही कहलाने दो*
रचना- *रेनू बाला सिंह*

प्रतिवर्ष नववर्ष हम क्यों मनाते
पश्चिमी देशों की है यह प्रथा
साथ में मिलकर खुशियों की कथा
दोहराई अपनाई उमंग भरी
नव वर्षीय गाथा
प्रतिवर्ष नववर्ष::::

सर्दी की गलन से ठिठुराते जेब से हाथ बाहर नहींआते
कान मफ़लर से ढ़कते जाते जुरार्बें दस्ताने चढ़ाएं रहते
प्रतिवर्ष नववर्ष:::::

नगाड़े की थाप पर नाचते गाते
पश्चिमी देशों की योजना में रमते जाते
स्याह घने गहराते कोहरे में सजते
चकाचौंध बिजली बाती में चमकते
प्रतिवर्ष नववर्ष:::::::

अंधेरी बीती रात झालरों से जगमगाते
टिक टिक करती घड़ी के जैसे ही मिलते
हैप्पी न्यू ईयर्स का नारा लगाते
संबंध बढ़ा प्यार से एक दूजे से गले मिलते
प्रतिवर्ष नववर्ष::::::::

नव कोपल नव पुष्प खिलें
ठिठुरन विदा ले
नव प्रभात नव प्रकाश उजागर हो
बासंती बयार नव ऊर्जा का संचार हो
फुलवारी बसंत मुस्काए आंगन आंगन
प्रतिवर्ष नववर्ष :::::

पीली सरसों के फूलों से सजी वसुंधरा
प्रकृति बिखेरती हरित
स्नेह धारा
उत्साह उल्लास उमंग उत्सव आने दो
शुक्ल चैत्री दिवस प्रथम
नववर्ष इसे ही कहलाने दो
नववर्ष इसे ही कहलाने दो

रचना--रेनू बाला सिह

*शिवरात्रि*

*काव्य रंगोलीमंच को नमन*

आध्यात्मिक मकसद शिवरात्रि मनाने का
शरीर के कण-कण को जीवंत करने का
भांति भांति के संघर्षों को त्यागने का
आध्यात्मिक मकसद:::

सत्यम्- शिवम्-सुंदरम् अपनाने का।
धर्म अर्थ काम मोक्ष  की अति कृपा का
शिवरात्रि का उत्सव स्मरण करने का
आध्यात्मिक मकसद::: 

'शि'अर्थ पापों को नाश करने का
'व' का अर्थ देने वाले यानी दाता का
साधक और भक्तों के सिद्धांतों का ।
आध्यात्मिक मकसद:::

प्रतिनिधित्व करता हमारी आत्मा का ।
आभामंडल और हमारी चेतना का।
ब्रह्मांडीय चेतना पृथ्वी तत्व को छूने का ।
आध्यात्मिक मकसद शिवरात्रि बनाने का धन्यवाद ।
स्वरचित -
रेनू बाला  सिंह 🖋️
गाजियाबाद

काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार चंदन अंजू मिश्रा जमशेदपुर

 


चंदन अंजू मिश्रा

पता: जमशेदपुर

कृतियां: द फर्स्ट स्टेप, डैडी सहित 7 पुस्तकों में कृतियां ।

चंदन :सुगंध शब्दों की का प्रकाशन

सम्मान :राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित सम्मान पत्र प्राप्त

सामाजिक कार्य:रॉबिनहुड अकादमी की सदस्या



कवितायें:



1)साजन आना उस नदी के किनारे,

साँझ को बैठ मन की बातें करेंगे।


मुझे शहर की भीड़ से दूर ले जाकर,

नैनों की डोर में अपने बाँध लेना।

जो धरा है मेरे मन की बंजर हुई,

इस पर बादल बन जल बरसा देना।

सुनाकर अपने मन की सारी बातें,

संग थोड़ा रो लेंगे और थोड़ा हँसेंगे।।

साजन आना उस नदी के किनारे,

साँझ को बैठ मन की बातें करेंगे।


ले आना तुम झुमके एक जोड़ी ,

एक जोड़ी पायल भी ले आना।

बिंदिया वो छोटी काली वाली और,

नैनों के लिए काजल भी ले आना।।

तेरी पसन्द की हुई चूड़ी, बिंदी,

साड़ी, झुमके सब मुझ पर खिलेंगे।।

साजन आना उस नदी के किनारे,

साँझ को बैठ मन की बातें करेंगे।


जन्मों - जन्मों की बात कौन जाने,

इसी जन्म में हर वादा पूरा कर लें।

मिटा कर सारे पुराने दाग हम चलो,

एक दूसरे की ज़िंदगी  रंगों से भर लें।।

भूल कर इस दुनिया की सारी बातें,

एक दूसरे की आत्मा में खोए रहेंगे।।

साजन आना उस नदी के किनारे,

साँझ को बैठ मन की बातें करेंगे।


-©चंदन "अंजू" मिश्रा



2)*रात्रि के दो पहलू*


गहराई जाती है देखो,

बीतती ही नहीं यामिनी।

पुष्प  कुमुदिनी के प्रसन्न,

कि रुकी हुई है चाँदनी।।


किसी मन में व्यथा है ,

किसी मन में उल्लास है।

निशा में छुपी पीड़ा भी,

संग चाँदनी का प्रकाश है।।


किसी मन के प्रतिबिंब को,

झिंझोड़ देती है रात कृष्णा।

और किसी की चन्द्रिका ये,

मिटा देती है मन की तृष्णा।।


जिस साथी से वियोग हुआ,

व्यथित मन को वो याद आए।

रुदन करता विरह में मन,

कि ये रैना क्यों न बीत जाए।।


लेकिन ये शरद रात देखो,

चन्द्रमा को संग लाई है।

खिल उठा दिव्य ब्रह्मकमल,

सुगंध चहुँ ओर छाई है।।



-©चंदन "अंजू " मिश्रा



3)मैं नहीं हूँ कोई लेखिका,

क्योंकि मुझे नहीं करनी आती,

लेखकों की तरह गहरी बातें।


मैं तो बस लिख देती हूँ,

कभी हॄदय में चलते तूफान को,

कभी अकुलाते मन की व्यथा को,

कभी समाज में होते अन्याय को,

कभी विरह को कभी प्रेम को,

कभी कोयल की कूक को,

सड़क पर पड़े किसी गरीब के भूख को।


मैं पीड़ा में अश्रु नहीं बहाती,

नेत्रों में पड़े उन मोतियों को,

मैं स्याह रंगों में सफ़ेद पन्नों पर उकेर देती हूँ,

और बन जाती है रचना,

हाँ, उन लेखकों की तरह मैं गोल-गोल बातें नहीं कह पाती,

मुझे नहीं लिखनी आती कविताएं,

अपनी बेढंगी बातों को आवरण पहना देती हूँ बस।


-©चंदन "अंजू" मिश्रा






काव्यरंगोली आज का सम्मानित कलमकार सोनी बड़वानी म,प्र,

  शोभा सोनी 

बड़वानी जिला बड़वानी 

 मध्यप्रदेश 

 शोभांजली काव्य संग्रह

में रचना प्रकाशित

जल्दी ही मंचो पर आना प्रारम्भ किया कोई विशेष सम्मान ओर उपलब्धि अभी नही है।

कविताएं आप सभी के अवलोकन हेतु प्रस्तुत है हौसला अफजाई हेतु

मो0+91 97520 50950


विषय- होली

 रँगों की बहार छाई 

होली आई रे 


स्वरचित -


रँगों की बहार छाई ,रे होली आई रे


खुशियाँ छाई चहुँ ओर ,होली आई रे।


गोकुल में धमाल मचावें

कान्हा संग फाग मनावें

ग्वालो की टोली आई होली आई रे

रगों की बहार छाई ,होली आई रे


रँग गुलाल उड़ावे भर पिचकारी मारे फुमारी

करे बरजोरी हुड़दंग मचावें होली आई रे

रँगों की बहार छाई होली आई रे


ढोल नगाड़ा चंग बजावे

सरस् फाग रसिलो गावे

मुरली फाग रास रमावे ,होली आई रे

रंगों की बहार छाई अरे होली आई रे


गूँजया ठंडाई मेवा मिठाई

खूब लुटावे यशोदा माई

गोपियाँ प्रेम रँग भिगोई

साथ भाँग घोट लाई , होली आई रे

रँगों की बहार छाई .रे होली आई रे।


गोकुल ग्वालो की ले टोली कान्हा पहुँचे बृज को,

रँगने राधा गौरी को बृषभानु की छोरी को।

सखियाँ देख सभी हरषाई होली आई रे।

रँगों की बहार छाई,.रे होली आई रे।


ढूंढ लिया राधे प्यारी को 

पकड़ बईया रँग डाला

गोरा बदन सुकुमारी का

लाल पीला कर डाला


कान्हा बदन मस्ती छाई होली आई रे

रँगों की बहार छाई  रे होली आई रे।


शोभा सोनी

बड़वानी म,प्र,



होली 

          स्वरचित 


विषय- रँगों में प्यार मिला ले 



आओ नफरतों को मिटा दें

जीवन से उदासियाँ हटा दें


काम करे  ऐसा आशीष सबकी पालें।

न दर्द दें किसी को न घाव दिल में पालें।


गले लगायें सबको गिले - शिकवे मिटालें।

क्या गरीब क्या अमीर ये रँग भेद न पालें


इन रँगों की तरह हम भी ये फर्क मिटालें

अधरों पर हो मुस्कान सदा जीवन सुखी बनालें।


बन कर किसी का सहारा तन्हाइयाँ  मिटादें।

अबकी होली इन रँगों में थोड़ा प्यार का रँग मिलालें।


 दिल जिसमे रँगना चाहें ऐसा प्यार का रँग डालें।

कड़वाहट दूरकर,आओ रँगों में प्यार मिलालें।




शोभा सोनी बड़वानी म,प्र,




होली


लेखनी की धार से


विषय- कवियों संग होली ( कोरोना) 


कौन कहता हैं कि रस कोरोना काल मे 

फीका लग रहा हैं होली का त्यौहार


हर कवि कर रहा हैं शब्दो से प्रेम गीतों की बरसात

कभी कान्हा का फाग रस तो

कभी राधे की हया की लाली


हर शब्द को बना दिया हैं 

सबने मिल सप्तरंगी रांगोली 


कौन कहता हैं कि कोरोन में हमने नही खेली होली 


हर रँग में रँगाया हैं वो जो इस पटल पर आया हैं


बड़ी कृपा इन रचनाकारों की  जिसने 


जीवन के हर पल को  सुनहरी शब्दों से सजाया हैं


कई रँग बिखेरे हैं दिल के कोरे कागज पर


रोते सिशकते बेचैन मन को 


तन्हाई से हटा ज्ञान पँखो का रँग भर उड़ना सिखाया हैं


हम भी अब इन रँगों में रँगवाने चले आय हैं 


अबकी होली हम कवियों संग मनाने चले आये है



शुक्रिया सभी कवि भाई बहनों का 


जो भाँती -भाँती के रँगों भरे शब्द बिखेर कर इस 


मंच इस पटल को रँगों से भरने आये हैं


सुना हैं ये काव्य रस चढ़  कर उतरता नहीं


हम भी इस रँग में अपना दामन रँगाने आये हैं


अबके होली हम कवियों संग मनाने आये हैं




शोभा सोनी बड़वानी म,प्र,





होली

 स्वरचित कलम 


विषय- भावो के रँग


आज रँगाले आओ दिलो को  सच्चे भावो के रँग


करले वादे एक दूजे को कभी ना करेंगे तँग


जीवन के हर पथ में हम सांझा कर पार  करेंगे।


मुश्किलों की लहरों पर भी तैर कर दिखलाए गे।



गर  कभी आये गम की आंधी

आँखों मे नमी भर जाय


हिम्मत बन एक दूजे की हर  तूफ़ान से लड़ जायेगे


क्या हुआ जो आज गुलाल रँग नही लग पाया


तेरी प्रीत भरे भावों के रँग में हम सराबोर हो जायेगे।



अनमोल.रिश्तों की  खातिर हम 

जीवन कुर्बान कर जायेगे


ऐसे प्यारे रँगों को हम भुला नही पायगे


रंग जाएंगे प्रीत रँग में और  प्रीत में खो जायेंगे।


ये भावों के रँग हर रँग से अजीज हैं 

इन रँगों की कीमत हम चुका नही पाएंगे।


शोभा सोनी

बड़वानी म,प्र,




होली


स्वरचित विधा कविता


विषय- जीवन होली हो गया

 

अबके फ़ागुण साजना मोहें बरसाने ले चालो जी 


राधे श्याम संग हैं माने फाग राग गाणों जी


सुन्यो हैं जो भी इणसूं रँगावे 

रँग वो कभी छुड़ा ना पावें


इनको प्रेम हैं जग सु साचो

जिन पाया सु बदले मानव मन ढांचों


बिरला कोई इन को प्रेम पावें

आपणो जीवन सफल बनावें


ऐसा फाग रसिया सु हैं माने रँगणो जी 


अबके फ़ागुण रसिया माने बरसाने ले चलो जी


कोरी कोरी चुंदरी मारी

श्याम रँग रँग लगे ली प्यारी  


मारी थे रँगा दीजो चुनर

थाको कुर्तो रँगाजो जी


आपा मिल राधे श्याम जपाला 


सुण सजन मंद-मंद

मुस्काया


ले माने बरसाने आया 


देख जोड़ी राधेश्याम की

में तो धन्य धन्य हो ली 


हेली मिल ऐसो खेलयो फाग 

मेंतो बावली हो ली 


भूल गई सजना को मोपे

  रँग चटकीलो चढ़यो अनोखो


पाके दर्शन राधेश्याम के  मन उन में खो गया 


आज जीवन होली हो गया 

आज जीवन होली हो गया


शोभा सोनी बड़वानी म,प्र,


शोभा सोनी बड़वानी म,प्र,


काव्यरंगोली आज का सम्मानित कलमकार सुनीता संतोषी इंदौर

 सुनीता संतोषी 

शिक्षा -  स्नातकोत्तर  अर्थशास्त्र

रुचि-   हिन्द साहित्य में लेखन (लघु    कथा ,कविता , लेख आदि)

बैडमिंटन बास्केटबॉल

समाज सेवा 

अध्यापन -  अध्यापन (अनुभव पंद्रह वर्ष )

 प्रकाशित रचनाएं- मनभावन सावन, हिंदी विशेषांक, बिटियादिवस ,

दिवाली विशेषांक ,जिंदगी, निर्भया,भजन विशेषांक, जन -गण - मन  आदि पुस्तकों में रचनाएं प्रकाशित एवं काव्य रंगोली  सांझा संकलन "माँ माँ माँ "मैं रचना प्रकाशित

अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी परिषद की मीडिया प्रभारी

महिला दिवस पर मध्यप्रदेश महिला रत्न सम्मान प्राप्त ।


मंच को सादर नमन


होली


कैसी आई आफत की टोली।


इस बार नहीं मना पाये होली ।


नहीं आई इस बार मस्तानों की टोली।


नहीं दिखी बच्चों की रंग बिरंगी पिचकारी।


नहीं ढोल ढमाकों की कोई आवाज आई।


नहीं सुनाई दी होली के हुरियारों की तान सुरीली।


नहीं उड़े फिज़ाओं   में रंग सतरंगी।


नहीं आई रसोई से पकवानों की महक लज़ीज़ी।


हाँ, इस बार नहीं मना पाए होली।


हाथ उठे गुलाल लेकर।


मन मचला अबीर होकर।


प्रेम रंग में रंग जाऊं,सारे बंधन तोड़ कर।


पर हाथ रुक गए माथा देखकर।


मन मायूस हो गया गुलाल छोड़कर।


हाँ, इस बार नहीं बना पाए होली।


स्वरचित

 सुनीता संतोषी

 इंदौर



🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

                 वीर सपूत


उन शहीदों की शहादत को नमन

जो हँसते हुए लुटा गये जाँ औ तन

जिन्हें नम आंखों से याद करता है  वतन।

 वे वीर भी सुंदर फूल थे अपने चमन के।


 युद्ध का फरमान मिलते ही,

 एक पल के लिए ही सही ,

दिल धड़का तो होगा

यह विचार तो आया होगा

घर परिवार का क्या होगा?


देशभक्ति को सर्वोपरि रखते हुए ,

भावनाओं को दिल के

किसी कोने में दफ़न करते हुए।

चल दिया वह वीर सिपाही

सारे रिश्ते नाते छोड़ कर,

नेह बंधनो को तोड़ कर

भुख प्यास और नींद भुलाकर,

 घनेरी पहाड़ियों से बर्फीली राहों पर

 अपना कर्तव्य निभाने के लिए।


कर्तव्य पथ पर चलते हुए

दुश्मन को  छकाते हुए,

अनेकों पर भारी पड़तें हुए

वह वीर सघर्ष करते हुए

लगा रहा था जाँ की बाजी।

दुश्मन पड़ गया भारी

सीना चीर गई दुश्मन की गोली

हुआ  शहीद वीर।


तिरंगे मे लिपटा निर्जीव तन

पहुंचा अपने घर आगंन

निहार रहे थे पथरीले नयन

शरीर निश्चल शांत और गंभीर।

 सुकून था ,देदीप्यमान मुख पर

वतन के प्रति कर्तव्य निभा कर।


चेहरा पढ़ रहे थे दो पनीले नयन

 शांत चेहरे पर थी अनगिनत लकीर।

 उनके बीच ऐसी भी थी एक लकीर

 जो कह रही थी मैं हूं कर्जदार,

उस रिश्ते का जिसे निभा न सका।

जिसके अरमान पुरें न कर सका।

वो रिश्ते निभाने,अरमान पुरे करने,

तेरा कर्ज चुकाने।मै आऊंगा जरूर

 बारंबार   बारंबार, बारंबार।


 जय हिंद जय हिंद


🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷


                         स्वरचित

                        सुनीता संतोषी

                               इंदौर



आंसू


सीप मे है मोती जैसे

अंखियों मे है आंसू ऐसे।


खुशी हो या गम दोनों

मे छलक आये एक जैसे।


यह आंसू बड़ें अनमोल है

वक्त बेवक्त बता जाते मोल है


कभी दर्द बन दिल मे समाये।

कभी गमों की निर्झरा बन बह आये।


विरहाग्नि में टपके  तो ,

लगे शीतल बूंद जैसे ।


स्नेह मिलन में गिरे तो,

लगे रिश्तों की मिठास जैसे।


प्रेम मिलन में गिरे तो,

लगे कुछ कुछ नमकीन से।


जहां इन्सानियत शर्मसार हो 

वहां गिरे तो ,

लगे कड़वाहट भरे कसैले से।


हर हालात में है,

स्वाद जु़दा- जुदा।


 है अपनी कहानी

 खुद बयां करने की अदा ।


मिलता ही नहीं,

कोई हिसाब इनका।


अंखियों की कोर

 ठिकाना है जिनका।


स्वरचित

सुनीता संतोषी 

इंदौर



🌷🌷🌷🌷🌷



                निर्भया


युगो युगो से देती आई परीक्षा नारी।

दुराचारी पुरुष, पर अपराधी नारी।

सीता जी का अपराधी रावण

छल से कर गया माता का हरण।


दुर्योधन की अभद्रता पर ,

बड़ों के मौन के कारण।

दुराचारी दुशासन ने किया,

 द्रोपदी का चीर हरण।


किन्हीं भी परिस्थितियों में हो,

बेबस, लाचार ,शिकार है नारी।

दुनिया को हिला देने वाली,

काली स्याह रात का सत्य है।

                                   निर्भया .....            

किशोर वय एवं मासूमियत पर,

विश्वास का परिणाम है।

                                    निर्भया.....

समान अधिकार के पक्षधर देश में,

हैवानियत का शिकार है।

                                   निर्भया......

अपने सपने अपनी अस्मिता को

तार तार होते हुए देखने का नाम है।         

                                     निर्भया....    

पीड़िता होते हुए भी कतिपय ,

लोगों की नाराजगी का उपालंभ है।

                                   निर्भया...

जिस बर्बरता के किस्से सुनकर

हर नारी की रूह़ कांप उठे वह है।

                                      निर्भया..

न्याय तो मिला ,पर मन मे 

एक फांस  सी रह गयी,

जिसनें दरिंदगी की हदे पार कर दी।

वहीं घूम रहा है कही बेखौफ।


पांचसाल, तीनसाल ,तीन महीने

की, नन्ही बच्चियां क्यों?

 हो रही दरिंदगी का शिकार।

जिनसे इंसानियत हो रही शर्मसार।


क्यों ?नहीं इन् नर पिशाचों को,

 तत्काल दिया जाता मार।

हे ईश्वर कोई बना दे एसी डगर,

जिस पर से गुजरे हर बेटी निडर।

बेपरवाह बेफ़िकर।



🌷🌷🌷🌷🌷


स्वरचित

सुनीता संतोषी

इंदौर



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              जिंदगी

अल्हड़ बचपना अपने आप में मस्त।

दीन दुनिया से बेखबर।

आज का पता न कल की फ़िकर।

यही तो है जिंदगी.............


कुछ पा लेने की चाहत में खोता बचपन।

स्वयं को स्वयं में खोजता यौवन।

अपनी ही उलझन में ढूंढता सुलझन।

यही तो है जिंदगी...............


कुछ कर गुजरने के ख्वाब लिए नयन।

छूटता अपना घर आंगन।

कामयाबी के पर लगा छुता आसमान।

यही तो है जिंदगी...............


जो चाहा वह पा लिया।

जो ना चाहा वह भी पाया।

फिर भी मन रिक्त हो आया।

खुद से खुद को ही ठगा पाया।

यही तो है जिंदगी.............


हर सांस में है जिंदगी।

हर आस में है जिंदगी।

जिसे कोई सुन ना सका,

वह सन्नाटे की आवाज है जिंदगी।

यही तो है जिंदगी..........


सारी उम्र गुजार दी पढ़ते-पढ़ते।

जीना सिखा गई जिंदगी चलते-चलते।


🌷🌷🌷🌷🌷



स्वरचित

सुनीता संतोषी

इंदौर



काव्यरंगोली आज का सम्मानित कलमकार पुष्पा जोशी 'प्राकाम्य'

 नाम----पुष्पा जोशी

            'प्राकाम्य'

माता का नाम--श्रीमती

            कलावती जोशी

पिता का नाम----स्व.श्री

              गौरीदत्त जोशी

शिक्षा----टि॒‌पल एम. ए.--इतिहास, अर्थशास्त्र, अंग्रेजी, संगीत प्रभाकर,

विद्यावाचस्पति, बी. एड., बी. टी. सी.(प्रशिक्षण)

संप्रति----शिक्षक (राजकीय विद्यालय उत्तराखंड)

मोबाइल--8267902090

ईमेल-mailto.joshipushpa@gmail.com


विधा--कविता,कहानी, गीत, नवगीत, दोहे,छंद लघुकथा,लेख/निबन्ध आदि।


प्रकाशित पुस्तकें--

1--प्राकाम्य काव्यकलश, 

2--नाचें परियाँ छम-छम-छम,

3--मुन्ना गाए ये हरदम  4--धूम-धूम-धूम-तक-धिना-धिन,

5--झूम-झूमकर नाचें हम',

6--बालकाव्यांजलि 

7--कहानी संग्रह (प्रकाशनाधीन)


सम्मान/पुरस्कार---- 

1--गवर्नर अवार्ड-2015

2---विभिन्न राज्यों की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा साहित्यिक सम्मान/पुरस्कार  आदि।

आकाशवाणी, दूरदर्शन पर प्रसारण कवि सम्मेलनों आदि में प्रतिभाग व मंच संचालन आदि।


( *होली पर कुछ रचनाएँ)* 


( *1* )

 *नज़राना* 


सजन जी आज होली है,

मुझे रंगों से भर देना।

सजा देना सितारों-सा,

दो नजराना तो ये देना।

सजन जी आज होली है,,,,,,,।


मेरे कंगनों की खन-खन तुम,

तुम्हीं पायल की रुन-झुन हो।

करो बारिश जो फूलों की,

तो बाँहों में भी भर लेना।

सजा देना सितारों-सा,

दो नजराना,,,,,,,,,,।


मेरा श्रृँगार महकेगा,

किया दीदार जो तुमने।

लुटाना प्यार जी भरके,

करो बरजोरी,कर लेना।

सजा देना सितारों-सा,

दो नजराना,,,,,,,,,,।


तुम्हीं संगीत जीवन का,

बहारें तुम हो जीवन की।

लूँ जब-जब भी जनम सजना!

सुघड़ वर बनके वर लेना।

सजा देना सितारों-सा, दो नजराना,,,,,,,,,,।

सजन जी आज होली है,

मुझे रंगों से भर देना।


पुष्पा जोशी 'प्राकाम्य'

शक्तिफार्म सितारगंज ऊधम सिंह नगर उत्तराखंड


( *2* )

 *घनाक्षरी* 


अबिर-गुलाल लिए,भर-भर थाल लिए,

नैनन में प्यार लिए,गोरी मुस्काय रही।

नैनन से वार किए,वश भरतार किए,

हाथ भर-भर रंग,पिया को लगाय रहीं।

लिए पिचकारी हाथ,मारें किलकारी साथ,

छोटे-छोटे हाथ-पैर,बाल भी चलाय रहे।

भर पिचकारी रंग,बोलते गज़ब ढंग,

तोतली जुबान बोल,सबको रिझाय रहे।



पुष्पा जोशी 'प्राकाम्य'

शक्तिफार्म सितारगंज ऊधम सिंह नगर उत्तराखंड


( *3* )

 *होली पर दोहे* 


रंग प्रथम अर्पित करूँ,प्रथम पूज्य देवेश।

फाग मनाने आइये,हरि-हर- ब्रह्मा देश।।०१।।


सारे देवी-देवता,आमंत्रित कर धाम। 

रंग-पुष्प अर्पित करूँ,सादर करूँ प्रणाम।।०२।।


सकल सृष्टि को हो विनत,सादर करूँ प्रणाम।

लगा भाल कुंकुम तिलक,बोलूँ सीता-राम।।०३।।


रंग-भंग मत कर सके,होली में हुड़दंग।।

होली मिलकर खेलिए,चढ़ें प्रेम के रंग।।०४।।


देवर-भावज खेलते,यों होली के रंग।

नहले पर दहला जड़ें,मन में लिए उमंग।।०५।।


होली की शुभकामना,और बधाई साथ।

सिर पर सबके ही रहे,परमपिता का हाथ।।०६।।


पुष्पा जोशी 'प्राकाम्य'

शक्तिफार्म सितारगंज ऊधम सिंह नगर उत्तराखंड


( *4* )

 *रंगों का त्योहार,* 


होली रंगों का त्योहार,

हम संग खेलें साँवरिया।

होली फागुन फाग बहार,

दुनिया हो रही बावरिया।

होली रंगों का त्योहार,

हम संग खेलें साँवरिया,


अबीर-गुलाल के थाल भरे हैं,

रंग से कलश‌ भरे हैं।

बागों में फूल पलाश खिलें हैं,

दिल से दिल ‌भी मिलें हैं।

हो रही रंगों की बौछार,

हम संग खेलें साँवरिया।


देवर-भाभी, जीजा-साली,

सजनी सजन संग खेलें,

रंगों का त्योहार मनाएँ,

मार रंगों की झेलें।

मीठे रिश्तों का ये प्यार,

हम संग खेलें साँवरिया।


चाय-पकौड़ी,पापड़-गुजिया,

खाए और खिलाएँ।

कोई खिलाए भाँग पकौड़े, 

घोट के भंग पिलाएँ।

मीठी छेड़छाड़ मनुहार,

हम संग खेलें साँवरिया।


ढोल मृदंग मंजीरों के संग, 

गीत मिलन के गाएँ,

घर-घर छिड़ती राग रागिनी, 

मीठी तान सुनाएँ।

है ये खुशियों का त्योहार,

हम संग खेलें साँवरिया।

होली रंगों का त्योहार,

हम संग खेलें साँवरिया।


होली पावन पर्व है ऐसा,

नफ़रत-बैर मिटाए।

प्यार से सब रूठे लोगों को, 

फिर से पास बिठाए।

मारें पिचकारी की धार,

हम संग खेलें साँवरिया।

होली रंगों का त्योहार,

हम संग खेलें साँवरिया।


पुष्पा जोशी 'प्राकाम्य'

शक्तिफार्म सितारगंज ऊधम सिंह नगर उत्तराखंड


( *5* )

 *फागुन"* 


रंगों की बरसे बदरिया,

मेरी भीगे चुनरिया।

रंग भरी छलके गगरिया,

मेरी लचके कमरिया।


होली मिलन ऋतु फागुन की आयी,

मन में उमंग और मैं शरमायी।

आये पिया जब अटरिया,

मेरी भीगे चुनरिया।

रंगों की बरसे बदरिया,

मेरी भीगे चुनरिया।


अबीर-गुलाल के थाल भरें हैं,

कोरे कलश रंगों से भरे हैं।

पड़ गयी पिया की नजरिया,

मेरी भीगे चुनरिया।

रंगों की बरसे बदरिया,

मेरी भीगे चुनरिया।


बचने पिया जी से बागों में भागी,

बागों में भागी तो नींदों से जागी।

ली जब पिया ने खबरिया, 

मेरी भीगे चुनरिया।

रंगों की बरसे बदरिया,

मेरी भीगे चुनरिया।


प्रीत की नजरों से जो रंग डाला,

होली के रंग को भी फीका कर डाला।

गोरी की सज गई नगरिया, 

मेरी भीगे चुनरिया।


रंगों की बरसे बदरिया,

मेरी भीगे चुनरिया।

रंग भरी छलके गगरिया,

मेरी लचके कमरिया।


पुष्पा जोशी 'प्राकाम्य'



शक्तिफार्म सितारगंज ऊधम सिंह नगर उत्तराखंड'

मोबाइल--8267902090

🙏🙏🙏🙏🙏🙏

 गवर्नर अवार्ड 2015 है।

काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार रवि प्रताप सिंह शब्दाक्षर प्रमुख कोलकाता

 नाम-रवि प्रताप सिंह


पिता का नाम-स्व.शेर बहादुर सिंह

माता का नाम-स्व.नंदेश्वरी सिंह

जन्म तिथि- 8 फरवरी 1971कानपुर (उ.प्र.)

पुस्तैनी निवास- ग्राम:असहन जगतपुर,बछरावां, जिला-रायबरेली(उ.प्र.)

पैतृक आवास- बाईपास रोड, नवाबगंज, जिला-उन्नाव(उ.प्र.)

वर्तमान आवास- 14,आशुतोष घोष लेन,मृणालिनी रेजीडेन्सी-||,फ्लैट न.4सी,चौथा तल्ला,पो-श्रीभूमि,कोलकाता-700048(प.बं.)

लेखन विधाएँ-ग़ज़ल,गीत,कविता,लघु कथा एवं कहानियाँ ।

साहित्यिक गतिविधियाँ-कोलकाता दूरदर्शन,आकाशवाणी,ताजा टी.वी. इत्यादि पर साहित्यिक एवं काव्य गतिविधियों में सक्रिय सहभागिता। प्रतिनिधि समाचार पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। काव्य मंचों पर अनवरत भागीदारी ।

विशेष अभिरुचि-पत्रकारिता ।

अनुवाद-कुछ रचनाएँ हिन्दी से बंगला भाषा में अनुदित एवं प्रकाशित ।

संस्था-संस्थापक अध्यक्ष 'शब्दाक्षर' साहित्यिक-साँस्कृतिक संस्था ।

सम्मान- 'सृजन रत्न सम्मान', 'राजभाषा सम्मान', 'आर्य कवि सम्मान', आई. आई.खड़गपुर 'टी.एल.एस.सम्मान', 'गंगा मिशन सम्मान', 'साहित्य मंजरी सम्मान', 'प्रवज्या सम्मान',रविन्द्र नाथ ठाकुर सारस्वत साहित्य सम्मान','कवितीर्थश्री सम्मान', 'कवि कुम्भ सम्मान' तथा 'महाकवि कुम्भ' सम्मान से सम्मानित।


संप्रति-रेलसेवा।

मोबाइल-8013546942

ई-मेल-singh71rp@gmail. com




ऋतु बसंती आ गयी मौसम गुलाबी हो गया।

रंग  के  छींटे  पड़े   चेहरा  शराबी  हो  गया।


मद भरे  वातावरण  में  छा  गईं  मदहोशियां,

दिल फ़क़ीरों का भी होली में नवाबी हो गया।


अनुछुआ तन छू गयी जब फागुनी चंचल पवन,

शब्द  चित्रित  देह  का अंतस किताबी हो गया।


चक्षु की भाषा मुखर कुछ इस तरह से हो गयी,

मौन का  हर पक्षधर  हाज़िर-जवाबी हो गया।


काम ने रति के कपोलों पर मला ऐसा गुलाल,

गौरवर्णी  रूप  तपकर  आफ़ताबी  हो  गया।

............................................................

(रवि प्रताप सिंह,कोलकाता,8013546942)




वो निशाने पे सजी मिसाइलें

पहाड़ से टूटे पत्थरों की भाँति 

गोदामों में पड़े परमाणु बम !

सब के सब हो गए भोथरे

एक अदृश्य विषाणु के सामने !

परिंदों को पिंजडों 

में कैद करने का शौक़ीन आदमजात

फड़फड़ाने लगा अपने ही बनाये दड़बों में 

एक शब्द लॉकडाउन बन गया 

सभी भाषाओं का इकलौता पर्यायवाची

बुल्गारिया से लेकर होनूलुलू तक

इस एक शब्द ने घेर ली जगह शब्दकोशों में 

शनै शनै मद्धिम पड़ने लगेगी 

लॉकडाउन शब्द की गूँज 

जैसे दूर वादियों में गूंजती

 आवाज दम तोड़ने

लगती है धीरे-धीरे !

 रहेगा वही 

दमकता हुआ  

चेहरा दुनिया का !

या फिर धरती भी

 हो जायेगी दागी चाँद जैसी !

वो बस अड्डों की भीड़-भाड़ 

लोकल ट्रेनों की धक्का-मुक्की

वो कारों के चीखते हार्न

ऑटो में खूबसूरत बदन से बदन 

रगड़ने का क्षणिक सुख

पार्क में दिन-दिन भर

गुटरगूँ करते प्रेमी जोड़े 

गर्ल्स हॉस्टल के चौराहे पर

एक सिगरेट शेयर करते 

पांच जवां होंठ !

क्या बन जायेंगे

किसी युवा उपन्यासकार के 

उपन्यास का कथानक !

सुनाया करेगा कोई 

नया नया सेवानिवृत्त हुआ बाबू

मोहल्ले में नये नये जवान हुए 

छोकड़ों को अपनी आप बीती !

अभी मरा नहीं है वो रक्तबीज 

जिसने पैदा किया है 

दुनिया भर में ईज़ाद एक शब्द लॉकडाउन !

कब कहाँ कोई मानव बम फटेगा 

बिखर जायेगा 

बारूद बन कर !

वो अदृश्य राक्षस

जिससे बचने के लिए 

सुस्ताने लगे सारी गाड़ियों चक्के

चैन की सांस लेने लगीं रेल की पटरियाँ

पर कब तक रहेगी ऐसी दुनिया 

क्या फिर से रहेगी वही दुनिया

जैसी थी लॉकडाउन के पहले !!

...........................................

(रवि प्रताप  सिंह,कोलकाता,8013546942)



'साल भर का मौसम'

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माँ ने एक दिन खुश होकर

एक रूपया मेरी छोटी-सी हथेली पर

प्यार से रख दिया था

मैं बाजार की ओर सरपट दौड़ा

मैंने दस पैसे की धूप और

चार आने की बारिश खरीदी

पन्द्रह पैसे उस दुकान के लिए

रख छोडे, ज़हाँ

 कड़कड़ाती ठण्ढ बिकती थी

बसंती बयार पर भी चार आने लुटाये

बाकी बचे चार आने,

सावन और पतझड पर उड़ाये.

उस दिन माँ ने मुझे आंचल में छुपाकर

मेरी बुध्दिमत्ता को माना था,

एक रूपये में साल भर का

मौसम मिलता है,

मैंने पहली बार जाना था |


........(रवि प्रताप सिंह)........



-----तुम आये-----

-----------------

तुम आये तो पत्थरों से स्वर फूटे

तुम आये तो धूप ने छाया दे दी

तुम आये तो सरिता हुई सागर

तुमने सिखलाया

सूरज को शीतल होना

चाँद को तपना

फूलों को हँसना

पहाड़ों ने तान छेड़ी

झरनों ने गीत गाये

जब तुम आये

तुम्हारे आने से बहुत कुछ बदला जिंदगी में

सोना-जगना

रोना-गाना

खाना-पीना

यूँ ही जीना

और भी बहुत कुछ !

क्या कुछ नहीं बदला तुम्हारे आने से

हाँ……

नहीं बदला तो साँसों का आना-जाना

पंछियों से बातें करना

अकेले में चुप रहना

भीड़ में गुनगुनाना

देखकर भीगी पलकें

आँखों का नम हो जाना

जिंदगी का व्याकरण तुम्हीं से सीखा मैंने

कितने मायने होते हैं जिंदगी शब्द के तुम से ही जाना 

छोटे से दिल का भूगोल कितना विस्तृत है

हृदय के स्पंदन पर उँगलियों के पोर रख समझाया था तुमने ही

तुम्हीं ने बताया था कि आँखे बोलती भी हैं

अधरों की थरथराहट सिर्फ कम्पन न होकर तृष्णा तृप्ति का मौन आमंत्रण भी है

तुम आये तो बहुत कुछ अजाना जाना मैंने

फिर एक दिन ……

चुपचाप चले गये जिंदगी से तुम

हो गया सबकुछ यथावत पहले जैसा 

जैसा था तुम्हारे आने से पहले|||


..........(रवि प्रताप सिंह)..........



7.

ये धरती न होती है ये अंबर न होता।

ये पर्वत न होते ये समंदर न होता।


जगत वाटिका में न होती खिली तुम,

किसी बाग में कोई मधुकर न होता।


नूपुर छन-छना-छन न बजते तुम्हारे,

झरनों में झंकृत मधुर स्वर न होता।


दिवस-रात्रि का क्रम न होता धरा पर,

नभ में भी शशि और दिवाकर न होता।


सुशोभित न होता नयन में जो काजल,

तो 'रवि' ने लिखा एक अक्षर न होता।


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दयानन्द त्रिपाठी निराला

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