मेरी "प्रथम" कहानी सादर प्रस्तुत है। कृपया इसे पूरा जरूर पढ़ें एवं अपने अमूल्य सुझाव दें।। धन्यवाद
--------- *कहानी*---------
*खाना बचा पर जान नही*
गुप्ता जी ने बेटे के तिलकोत्सव में दिल खोलकर खर्च किया था। नोटबन्दी का उनपर जैसे कोई असर ही न हुआ हो। पूरी राजशाही व्यवस्था थी। कार्यक्रम परिसर को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि स्वर्ग में आ गए हो।
एक से बढ़कर एक लजीज व्यंजन बनवाये गए थे। व्यंजनों की सूची गिनना आम आदमी के बस में नही था।
लोगो ने खाना शुरू किया । तभी मेरी नज़र दूर खड़े एक बूढ़े पर पड़ी जो कि गेट पर खड़े दोनों दरबानों से अंदर आने की विनती कर रहा था।
विनती क्या पूरी तरह से गिड़गिड़ा रहा था।
दरबान भला उसे क्यों आने देता, न आने देने के लिए ही तो उसे वहाँ नियुक्त किया गया था। घर मालिक का सख्त आदेश भी था बिना कार्ड के कोई भी अंदर न आने पाये।
भूख से व्याकुल बूड़े की आंख और पेट दोनों गर्त में चले गए थे। शायद उसे आज प्याज और सूखी रोटी भी नही नसीब हुई थी। लज़ीज़ व्यंजनों को देखकर भूख से त्रस्त पापी पेट उसे उसके स्वाभिमान को डगमगा रहा था। कई बार मना करने के बावजूद भी वो मात्र खाना खाने के लिए हाथ पैर जोड़ रहा था। अचानक दूर से घर मालिक को आता देख दरबान ने वाहवाही लूटने के चक्कर मे बूढ़े को जोरदार धक्का दे दिया और वो पुराने टेलीफोन के खंभे से जा टकराया। वहीं गिर गया उसकी परवाह भला कौन करता ? गरीब जो ठहरा।।।
और इधर अंदर , दावत अपने पूरे शबाब पर थी। क्या आम क्या खास, सभी के हाथों में प्लेट थी। सब भिखारियों के माफिक सब्जी,पूरी, मटर पनीर, पुलाव छप्पन भोग पर टूट पड़े थे।
लालचवश ढेर सारा खाना ले रहे थे ।
और भला कोई आदमी खड़े-खड़े खा भी कितना सकता है ?
ढेर सारा खाना बर्बाद कर रहे थे।
पढ़े लिखे लोग जो थे , थोड़ा खाना खा रहे थे, ज्यादा फेंक रहे थे।
और अपनी झूठी शानो शौकत कथित 'प्रोफेशनल समाज' को दिखा रहे थे।
मैं भी सफारी सूट पहन कर शान से पैर पर पैर रख कर एक गद्देदार कुर्सी पर धंसा हुआ था। मेरा दयालू चित्त बार बार मुझसे कर रहा था कि जाओ और उस बूढ़े को भरपेट भोजन कराओ। क्योंकि इससे बड़ा पुण्य कोई नही हो सकता। एक आदमी खा लेगा तो कम नही पड़ जायेगा।
क्योंकि सागर से एक बूंद जल ले लेने से सागर का कुछ नुकसान नही होता है।
ये सारे उपदेश मुझे अच्छी तरह से याद थे लेकिन मैं टस से मस नही हो रहा था।
भला होता भी तो कैसे ? इस घर का दामाद जो ठहरा। मेरा अहम मेरे सामने दीवार बनकर खड़ा था। मैंने कई बार रिश्तों के बंधन से निकल कर उस बूढ़े की मदद करने की सोची किन्तु मेरी इज्जत का क्या होगा ये सोचकर ठिठक गया।
वो बूढा अभी भी उसी टेलीफोन के खंभे की ओट में निढाल सा बिठा था। मैं भी इधर गद्देदार कुर्सी में आराम से बैठा रह गया।
अच्छा ऐसा नही था कि गुप्ता जी सामाजिक,पढेलिखे,जागरूक नही थे ।
ये सब उनके अंदर था, तभी तो "Save Food, Save India" नामक संस्था को फोन करके बचे हुए खाने को ले जाने के लिए कहा।
बड़ी सी गाड़ी आयी, बाकायदा तीन चार लोग हाइजीनिक तरीके से सारे खाने को उस कंटेनर में ले जाने के लिए रखने लगे।
सारे आम और खास लोग गुप्ता जी की बार बार तारीफ किये जा रहे थे।
कैमरा मैन भी पूरी घटना को बड़े शिद्दत से रिकॉर्ड कर रहा था।
मैं भी चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाने की कोशिश कर रहा था। कैमरे के फ़्लैश बार बार चमक रहे थे। ये तो तय था कि, कल के क्षेत्रीय समाचार पत्र में खाना बचाओ अभियान की अनूठी पहल की न्यूज़ जरूर रहेगी। मैं खुद को बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा था। आखिर ऐसे घर का रिश्तेदार जो ठहरा।
रात काफी हो गयी थी।
सारा प्रोग्राम समाप्त हो गया था।
टेंट वाले,आर्केस्ट्रा वाले, बैंड वाले, दरबान वाले, कैटर्स वाले सब लोग अपना अपना सामान पैकअप कर रहे थे।
सारे रिश्तेदार सोने के लिए अपने अपने रूम की तरफ प्रस्थान कर चुके थे।
उस बूढ़े की कोई हाल खबर लिए बिना सब के साथ मै भी आराम करने के लिए वहाँ से हट गया। बिस्तर पर पहुँच कर मैं लेट तो गया लेकिन नींद कोसो दूर थी।
बार बार उसी बूढ़े का झुर्रीदार चेहरा, फटी धोती, फटा हुआ थैला, हाथ मे बांस का पतला डंडा जिस पर कई रंग की पन्नी लपेटी हुई थी, ये सब मेरी आँखों के सामने नाच रहा था।
मैं सोच रहा था पता नही वो कितने दिनों से भूखा रहा हो ?
उसकी ऐसी हालत के पीछे कौन जिम्मेदार है ?
कहा रहता होगा ?
क्या खाता होगा ?
काफी देर तक मैं इन्ही उलझनों में खोया हुआ था।
मैंने अपनी जिज्ञासा बगल में लेटे हुए साढू भाई से बताई।
तो उन्होंने कहा ये सब ढोंगी होते हैं, यही इनका पेशा है।
बड़े लोगों की शादियों मे पहुँच कर नखरा करना इनके अभिनय का एक हिस्सा भर है।
इतने प्रबल तरीके से उन्होंने समझाया कि उस बूढ़े के प्रति मेरा नजरिया ही बदल गया।
थोड़ा गुस्सा भी आया, कि ऐसे ऐसे लोग भी होते हैं इस दुनिया में ?
कुछ देर बाद मुझे नींद आ गयी और मैं सो गया।
देर रात में सोने के कारण सुबह देर से आंखे खुली।
घर के बाहर निकला तो भीड़ जमा थी, कौतूहल वश मैं भी भीड़ की तरफ बढ़ चला।
पास जाकर देखा तो मेरे होश उड़ गए।
अरे ये तो वही रात वाले बूढ़े बाबा जी है।
क्या हुआ इन्हें ? मैने पूछा।
पता चला इनकी तो मौत हो गयी।मैं तो आवाक रह गया।
करीब से जाकर देखा तो सच मे वों अब इस दुनिया मे नही रहे।
उनकी आत्मा ने
जर्जर शरीर,
फटे वस्त्र,
एक चौथाई प्याज,
आधी रोटी,
पेप्सी के गंदे बोतल में थोड़ा पानी,
डंडे में बंधी हुई पन्नी,
कुछ चिथड़े आदि उसकी निजी संपत्ति को छोड़ दिया था।
आज के पेपर में कल के भोजन संरक्षण की खबर तो थी किन्तु भूख से मरने वाले बूढ़े बाबा की कोई खबर नही।
उस दिन सिर्फ वो बूढ़े बाबा ही नही मरे थे, बल्कि हम जैसों और हमारे कथित प्रोफेशनल समाज का ज़मीर भी मर चुका था। आइये हम सब मिलकर अपने समाज को सभ्य बनाये।।
कहीं ये न हो कि,
*खाना बचा, पर जान नही*
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✍🏻हिमांशु श्रीवास्तव *भानु*
रुदौली,अयोध्या धाम।
15-04-2017
पूरी कहानी पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।।